सहनशीलता, दया , नेकी ... हर शब्द के मायने हैं , पर अति विनम्रता सामनेवाले को अन्यायी बनाती है और खुद को सजा देती है .... तो ईश्वर ने जो भी सिखाया है , उसकी हदें भी बनायीं हैं... हदों को तोडकर रोते हुए हम ज़रा भी इस बात का ख्याल नहीं करते कि हमने ईश्वर को कितना रुलाया है !!!
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मुजरिम...
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मित्र,
हवा में भटकते पत्ते की तरह
तू मेरे पास आया...
बिखरे बाल , पसीने से लथपथ,
घबराहट और भय से तुम्हारी आँखें फैली हुई थीं...
तार तार होती तुम्हारी कमीज़ पर,
खून के छींटे थे ,
उफ़!
तुमने लाशों से ज़मीन भर दी थी,
मैंने कांपते हाथों उन्हें दफना दिया...
तुम थरथर काँप रहे थे,
बिना कुछ पूछे,
मैंने तुम्हें बिठाया,
तुम्हे आश्वस्त करने को॥
तुम्हारी पीठ सहलाई,
ठंडे पानी का भरा ग्लास तुम्हारे होठों से लगाया,
- " कठिन घडी में ही मित्र की पहचान होती है"
इस कथन के नाम पर सब कुछ झेला,
तुम विछिप्त होते होते बच गए!
तुम्हारी मरी चेतना ने करवट ली,
तुम्हारा साहस लौट आया,
लोगों की जुबां पर मेरा नाम आया,
मुकदमा चला..................
गवाहों के आधार पर
मुजरिम मैं करार दिया गया,
एक बार आँखें उठाकर तुमको देखा था,
भावहीन , सपाट दृष्टि से
तुम मुझे देख रहे थे!
आश्चर्य,
जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी...
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ऐसा भी होता है
ReplyDeleteहोम करते हाथ जला करते हैं
आज का यही दस्तूर है………………एक कटु सत्य है कि अत्यधिक विनम्रता भी दुखदायी हो जाती है। बेहद अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआश्चर्य,
ReplyDeleteजघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी...
क्रूरतम सत्य ...
यही उलटबांसी दुनिया की कई बार बहुत जी जलाती है ...!
अक्सर ऐसा ही होता है ...विनम्र एवं सहृदयी व्यक्तियों के साथ ....।
ReplyDeleteदुनिया का यही नियम है दीदी, जो शरीफ है वही हमेशा तकलीफ झेला है ...
ReplyDeleteगलती करने वाले तो हमेशा से ही साफ़ बांचते आये हैं ...
दिल से निकली हुई आवाज़ है ये कविता ... मैं महसूस कर सकता हूँ ...
यह कैसी मित्रता है ..एक ने निबाही दूसरे ने झुठलाई ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
बहुत सुन्दर सामयिक रचना है। यही आज की कड़वी सच्चाई है। बहुत बढ़िया प्रस्तुति।
ReplyDeleteजघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
ReplyDeleteऔर अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी।
संबंधों की विसंगतियों को उजागर करती विशिष्ट रचना।
इस कविता के बहूत सारी आयामों को मैंने गहराई से समझा है | शायद हम प्रतिदिन अपने ही लोगों को इसी तरह फांसी देते रहते हैं और अनजान बनाकर अपने ही दोस्त को....
ReplyDelete" एक बार आँखें उठाकर तुमको देखा था,
भावहीन , सपाट दृष्टि से
तुम मुझे देख रहे थे!"
रश्मिजी....
दिल तो कहता है ........
ReplyDeleteसुख जाने दो
जो वृक्ष फल नही दे सकते
देते हैं पर कष्ट आजीवन
पीते हैं लहू दूसरों को करके घायल
और जग में खुद बने रहते नूतन
फिर , आज जब हुए हैं घायल ,
तो उन्हें सुख जाने दो
मर्मस्पर्शी कविता !
ऐसा भी होता है मर्मस्पर्शी कविता.
ReplyDeleteदीदी प्रणाम!
ReplyDeleteमन पे स्पर्श करती एक यथार्थ सामने रखती सुंदर अभिव्यक्ति .
साधुवाद
सादर !
बहुत ही सुन्दर भावमय पंक्तियां
ReplyDeletebahut achchi lagi.
ReplyDelete"कठिन घडी में ही मित्र की पहचान होती है"
ReplyDeleteऔर इसका ठीक इसी की प्रतिक्रिया स्वरुप ये पंक्तियाँ-
"एक बार आँखें उठाकर तुमको देखा था,
भावहीन , सपाट दृष्टि से
तुम मुझे देख रहे थे!
आश्चर्य,
जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी..."
भला करते बुरा होने के कई उक्तियों को पुष्ट कर दिया ह जिसमे वर्तमान समाज और व्यक्ति की कृतघ्नता का वास्तविक और कड़वा सच अपनी नंगी सच्चाई लेकर उपस्थित हुवा है. आपके शब्द, कविता प्रवाह और भावाभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने इस रचना को बहुत ही संवेदनशील, मर्मस्पर्शी, सोचनीय और गहन बना दिया है. .. वाह दीदी ! इस रचना के लिए आपको बधाई और कोटि-कोटि नमन ! आभार !!
जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
ReplyDeleteऔर अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी..
आज की कड़वी सच्चाई है, बहुत बढ़िया प्रस्तुति।
आश्चर्य,
ReplyDeleteजघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी...
aaj ke samay ka yahi sach hai. achhi rachna, badhaai.
ये क्या...
ReplyDeleteसच्चाई दण्डित हुई...,
पर ऐसा होता तो है ही !
सादर!
जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
ReplyDeleteऔर अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी...
सच कहा आपने ,मै अगर कुछ कहूँ तो इतना ही के.......
ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!
http://sachmein.blogspot.com/2010/03/blog-post_26.html