==============================================================
सहनशीलता, दया , नेकी ... हर शब्द के मायने हैं , पर अति विनम्रता सामनेवाले को अन्यायी बनाती है और खुद को सजा देती है .... तो ईश्वर ने जो भी सिखाया है , उसकी हदें भी बनायीं हैं... हदों को तोडकर रोते हुए हम ज़रा भी इस बात का ख्याल नहीं करते कि हमने ईश्वर को कितना रुलाया है !!!


==============================================================




========
मुजरिम...
========

मित्र,
हवा में भटकते पत्ते की तरह
तू मेरे पास आया...
बिखरे बाल , पसीने से लथपथ,
घबराहट और भय से तुम्हारी आँखें फैली हुई थीं...
तार तार होती तुम्हारी कमीज़ पर,
खून के छींटे थे ,
उफ़!
तुमने लाशों से ज़मीन भर दी थी,
मैंने कांपते हाथों उन्हें दफना दिया...
तुम थरथर काँप रहे थे,
बिना कुछ पूछे,
मैंने तुम्हें बिठाया,
तुम्हे आश्वस्त करने को॥
तुम्हारी पीठ सहलाई,
ठंडे पानी का भरा ग्लास तुम्हारे होठों से लगाया,
- " कठिन घडी में ही मित्र की पहचान होती है"
इस कथन के नाम पर सब कुछ झेला,
तुम विछिप्त होते होते बच गए!
तुम्हारी मरी चेतना ने करवट ली,
तुम्हारा साहस लौट आया,
लोगों की जुबां पर मेरा नाम आया,
मुकदमा चला..................
गवाहों के आधार पर
मुजरिम मैं करार दिया गया,
एक बार आँखें उठाकर तुमको देखा था,
भावहीन , सपाट दृष्टि से
तुम मुझे देख रहे थे!
आश्चर्य,
जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी...

रश्मि प्रभा
http://lifeteacheseverything.blogspot.com/

19 comments:

  1. ऐसा भी होता है
    होम करते हाथ जला करते हैं

    ReplyDelete
  2. आज का यही दस्तूर है………………एक कटु सत्य है कि अत्यधिक विनम्रता भी दुखदायी हो जाती है। बेहद अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  3. आश्चर्य,
    जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
    और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी...

    क्रूरतम सत्य ...
    यही उलटबांसी दुनिया की कई बार बहुत जी जलाती है ...!

    ReplyDelete
  4. अक्‍सर ऐसा ही होता है ...विनम्र एवं सहृदयी व्‍यक्तियों के साथ ....।

    ReplyDelete
  5. दुनिया का यही नियम है दीदी, जो शरीफ है वही हमेशा तकलीफ झेला है ...
    गलती करने वाले तो हमेशा से ही साफ़ बांचते आये हैं ...
    दिल से निकली हुई आवाज़ है ये कविता ... मैं महसूस कर सकता हूँ ...

    ReplyDelete
  6. यह कैसी मित्रता है ..एक ने निबाही दूसरे ने झुठलाई ...

    बहुत अच्छी प्रस्तुति

    ReplyDelete
  7. बहुत सुन्दर सामयिक रचना है। यही आज की कड़वी सच्चाई है। बहुत बढ़िया प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  8. जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
    और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी।

    संबंधों की विसंगतियों को उजागर करती विशिष्ट रचना।

    ReplyDelete
  9. इस कविता के बहूत सारी आयामों को मैंने गहराई से समझा है | शायद हम प्रतिदिन अपने ही लोगों को इसी तरह फांसी देते रहते हैं और अनजान बनाकर अपने ही दोस्त को....
    " एक बार आँखें उठाकर तुमको देखा था,
    भावहीन , सपाट दृष्टि से
    तुम मुझे देख रहे थे!"
    रश्मिजी....

    ReplyDelete
  10. दिल तो कहता है ........

    सुख जाने दो
    जो वृक्ष फल नही दे सकते
    देते हैं पर कष्ट आजीवन
    पीते हैं लहू दूसरों को करके घायल
    और जग में खुद बने रहते नूतन
    फिर , आज जब हुए हैं घायल ,
    तो उन्हें सुख जाने दो


    मर्मस्पर्शी कविता !

    ReplyDelete
  11. ऐसा भी होता है मर्मस्पर्शी कविता.

    ReplyDelete
  12. दीदी प्रणाम!
    मन पे स्पर्श करती एक यथार्थ सामने रखती सुंदर अभिव्यक्ति .
    साधुवाद
    सादर !

    ReplyDelete
  13. बहुत ही सुन्‍दर भावमय पंक्तियां

    ReplyDelete
  14. "कठिन घडी में ही मित्र की पहचान होती है"
    और इसका ठीक इसी की प्रतिक्रिया स्वरुप ये पंक्तियाँ-
    "एक बार आँखें उठाकर तुमको देखा था,
    भावहीन , सपाट दृष्टि से
    तुम मुझे देख रहे थे!
    आश्चर्य,
    जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
    और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी..."


    भला करते बुरा होने के कई उक्तियों को पुष्ट कर दिया ह जिसमे वर्तमान समाज और व्यक्ति की कृतघ्नता का वास्तविक और कड़वा सच अपनी नंगी सच्चाई लेकर उपस्थित हुवा है. आपके शब्द, कविता प्रवाह और भावाभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने इस रचना को बहुत ही संवेदनशील, मर्मस्पर्शी, सोचनीय और गहन बना दिया है. .. वाह दीदी ! इस रचना के लिए आपको बधाई और कोटि-कोटि नमन ! आभार !!

    ReplyDelete
  15. जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
    और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी..
    आज की कड़वी सच्चाई है, बहुत बढ़िया प्रस्तुति।

    ReplyDelete
  16. आश्चर्य,
    जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
    और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी...
    aaj ke samay ka yahi sach hai. achhi rachna, badhaai.

    ReplyDelete
  17. ये क्या...
    सच्चाई दण्डित हुई...,
    पर ऐसा होता तो है ही !
    सादर!

    ReplyDelete
  18. जघन्य कर्म के बाद भी तुम बरी हो गए,
    और अदालत ने मुझे फांसी की सजा सुना दी...

    सच कहा आपने ,मै अगर कुछ कहूँ तो इतना ही के.......


    ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
    कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!

    http://sachmein.blogspot.com/2010/03/blog-post_26.html

    ReplyDelete

 
Top