कहाँ भटकते रहे मन?
तुम्हारे सारे अर्थ तो तुम्हारे ही भीतर थे,
जो "कस्तूरी" की तरह,
तुम्हारे रोम-रोम में सुवासित थे,
तुम्हारी आँखों में प्रदीप्त थे
तुम्हें जन्म दिया माँ ने
सिखाया समय ने
तराशा खुद को तुमने
तेज दिया ईश्वर ने
यूँ कहो अपना प्रतिनिधि बनाया ...
इसलिए नहीं कि तुम सिर्फ निर्माण करो
अनचाहे उग आए घासों को हटाना
यानि नेगेटिविटी को मारना भी तुम्हारे हाथों में दिया ...
रश्मि प्रभा
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मेरी तलाश मेरी जिजीविषा
मैं माध्यम हूँ ईश्वर का
जीवन के हर कोनों से मैं निकला हूँ
एक सत्य की तलाश में !
मैं प्रह्लाद नहीं
पर जिया मैंने प्रह्लाद को
समय होलिका का छद्म रूप ले
अग्नि में मुझे बिठाता गया
वह वक़्त जल गया
मेरी परिक्रमा जारी रही ...
मैं बुद्ध नहीं
पर महाभिनिष्क्रमण को मैंने जिया
यशोधरा को त्याग
निर्वाण की तलाश में
खो गया
....
नहीं था मोह राज्य का
नहीं था मोह ऐश्वर्य का
पर तथाकथित बुद्धिजीवियों को
उनकी ज़मीन दिखाने के लिए
मैं राजा बना
और दिखाया
किसे कहते हैं सामर्थ्य
क्या है यश !...
मैं कर्ण नहीं था
पर मुक्त हाथों से दान
मेरी जिजीविषा बनी ...
मैं कृष्ण नहीं
पर निःसंदेह उनका सुदर्शन चक्र हूँ
उनकी गीता का सार हूँ
हर बार मैंने यही कहना चाहा है
ज़मीन से रिश्ता बनाकर रखो
झुककर मिलो
फिर देवदार बनो
अपने हर निशान को
वटवृक्ष की शाखाओं सा रूप दो
...
परिवेशिये सुकून से बाहर निकलो
वेद ऋचाओं से जन्मे संस्कारों का
संकल्प लो
यकीनन तभी किसी महाग्रंथ की रचना होगी
और घर का आँगन लौटेगा ...
सुमन सिन्हा
http://zindagikhwaabhai.blogspot.com/
वाह! गज़ब की भावपूर्ण अभिव्यक्ति है…………सकारात्मक सोच को दर्शाती हुयी।
ReplyDeleteओ माय गोड! ...............
ReplyDeleteजिसे निःशब्द हो जाना कहते हैं वो ही हूँ आज.बहुत कम रचनाओं ने यूँ 'दिल की बहुत गहरे तक छुआ' है मुझे.यूँ इन शब्दों का प्रयोग ब्लॉग-जगत में इतना होता है हर कहीं कि अपनी गरिमा,गहराई,महत्ता अर्थ सब खो चूका है ये.इसलिए उपयुक्त शब्द नही मिल रहे.ऐसी ही एक कविता अपने कोलेज -लाइफ में लिखी थी मैंने 'रचनाकार से'.
सुमन जी! आपके ब्लॉग पर आना पडेगा भई.प्यार आपकी खूबसूरत सोच को.इस सोच की बहुत लम्बी उम्र हो.
आज पहली बार रश्मिप्रभाजी को कहूँगी-'जियो...वसूली हो गई उस क्षण की जिस क्षण तुम से मिली.और.....वटवृक्ष को पढ़ना वसूल हो गया.प्यार आप सबको.
फिर कहोगी ' हरदम रोती ही रहती हो क्या?'
......................
.....................
एक लहर सी दौड गई पूरे शरीर में मेरे इसे पढ़ने पर.शायद ज्यादा गहराई में उतर गई ?शायद इतनी गहरी है ये रचना.
मगर......मैं बहुत रोई.और अब भी लिख नही पा रही...मेरे आंसू की-बोर्ड को साफ़ नही देखने दे रहे मिन्नी!
हर बार मैंने यही कहना चाहा है
ReplyDeleteज़मीन से रिश्ता बनाकर रखो
झुककर मिलो
फिर देवदार बनो
अपने हर निशान को
वटवृक्ष की शाखाओं सा रूप दो...
Awesome !
.
Itni gahri soch:)
ReplyDeletesach kahun sumanji.....ham jaise sabdo ko jodne walo se bhut upar ki baat haii:)....
badhai!
Simply Superb
ReplyDeleteमन को धीरे -धीरे जागृत कर रही है /
ReplyDeleteसंवेदना के फुल खिलने लगे है //पढ़कर
Superb post
ReplyDeleteSuperb post
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteएक आत्मचेतना कलाकार
ज़मीन से रिश्ता बनाकर रखो
ReplyDeleteझुककर मिलो
फिर देवदार बनो
अपने हर निशान को
वटवृक्ष की शाखाओं सा रूप दो...
और तभी होगी एक महाग्रंथ की रचना ...
वाकई लाजवाब , अद्भुत !
परिवेशिये सुकून से बाहर निकलो
ReplyDeleteवेद ऋचाओं से जन्मे संस्कारों का
संकल्प लो
यकीनन तभी किसी महाग्रंथ की रचना होगी
प्रेरणादायक,सुन्दर पंक्तियाँ
रश्मि जी और सुमन भाई, बधाई सुंदर प्रस्तुतियों के लिए|
ReplyDeleteहमारे ब्लॉग्स से भी जुड़ें
http://thalebaithe.blogspot.com
http://samasyapoorti.blogspot.com
एक भावपूर्ण रचना!
ReplyDeleteभावपूर्ण प्रस्तुति!!!
ReplyDeletesimply awesome...
ReplyDeleteno more words...
हर बार मैंने यही कहना चाहा है
ReplyDeleteज़मीन से रिश्ता बनाकर रखो
झुककर मिलो
फिर देवदार बनो
अपने हर निशान को
वटवृक्ष की शाखाओं सा रूप दो
हर एक शब्द गहराई लिये हुये इस सशक्त रचना के लिये बधाई ...रश्मि दी का आभार इसे पढ़वाने के लिये ..।