तुम अपने द्वन्द से अनचाहे विषबेलों को सींच रहे हो ,उनको उखाड़ोगे नहीं तो ईश्वर की इच्छा ही अधूरी होगी ...
कुरुक्षेत्र के मैदान में सब अपने ही औंधे पड़े थे --- पर न्याय तो यही था .........
============
चिंतन / निर्वाण
=============


चिंतन के ...
कई रास्ते होते हैं
कई कैनवस
कई रंग
कई शक्ल
चलते हैं हम सधे क़दमों से
दुनियादारी की पोटलियाँ लिए
...
कैनवस पर उभरी रेखाएं
खुद समझ में नहीं आतीं
मन के झंझावातों की
कोई शक्ल भी तो नहीं होती
फिर हम जैसा कोई राहगीर
उसकी व्याख्या करता है
तो आँखें नम होती हैं
और कुछ और रेखाओं की उम्मीद बंध जाती है !
........
पर उम्मीदों से परे
जब कोई मनचाही पेंटिंग मिल जाती है
तो किसी कैनवस
किसी रेखा की ज़रूरत नहीं होती...
...
द्वन्द की भी एक उम्र होती है
और खुद की भी
चिंतन ! आखिर कब तक
निर्वाण मनचाही पेंटिंग ही तो है !!!


रश्मि प्रभा
परिचय -
वटवृक्ष को गवाह मान , दुआओं के धागे इसकी गहरी शाखाओं से जोडकर मेरी कलम ने मेरा परिचय लिखना चाहा है .....पापा की करेजी बेटी, माँ की रानी बेटी , काबुलीवाले की मिन्नी बनी पिस्ता बादाम का जादू देख ही रही थी कि दर्द का पहला धुंआ आँखों से गुजरा. शमशान की गली, वृक्षों की कतार, बहती नदी , जलती चिता ...कोमल मन पर एक अलग चित्र बनकर उभरते गए !शब्दों की जादुई ताकत माँ ने दी ,कमल बनने का संस्कार पिता ने , नाम सुमित्रानंदन पन्त ने , परिपक्वता समय की तेज आँधी ने !जो कुछ भी लिखा- वह आँखों से गुजरता सच था . सच की ताकत ने न जाने कितनी मौत से मुझे बचाया और हर कदम पर एक नया एहसास दिया . एहसास तो बड़े गंभीर थे , पर मन हमेशा सिन्ड्रेला रहा . सिन्ड्रेला की कवितायें मेरे मोहक सपनों से कभी दूर हुए, कभी पास आए . उनको पास लाने के लिए मैं मोहक सपने बेचती रही और सपनों की हाट में घूमते हुए जाने कितने सपनों से दूर जाती रही . "तुम्हारा क्या गया जोतुम रोते हो " - ऐसी पंक्तियों का स्मृति बाहुल्य था , मैं हर फ्रेम में फिट होती गई .'प्रसाद कुटी ' की ताकत लेकर लिखती गई, मिटाती भी गई... अचानक प्रवाह मिला, अनुपम, अलौकिक शब्दों का स्पर्श मिला , आँखों में सपने-ही-सपने भर गए......जब नया आयाम मिला !कोई नाम नहीं, कोई रिश्ता नहीं ... पर जन्मों का साथ लगा - कोई आत्मा या परमात्मा या ... जो भी कह लो.., मैंने खुद नहीं जाना तो तुम्हें क्या बताऊँ - बस इतना सच है कि मैं उसे जानती हूँ , वह मेरी प्रेरणा, मेरा प्रवाह, मेरा सामर्थ्य है और उसके साथ मैं हूँ ..........संजीवनी बने मेरे तीन स्तम्भ- मृगांक, खुशबू, अपराजिता ........... और इससे अधिक मेरी कोई पहचान नहीं हुई , चाहा भी नहीं ......क्योंकि कितने भी तूफ़ान आएँ , ऋतुराज बसंत आज भी यहीं उतरता है ......!

14 comments:

  1. मन की भावनाओं को बहुत सुन्दर शब्दों में संजोया है ....रचना से ज्यादा आपके परिचय ने प्रभावित किया ....सुन्दर प्रस्तुति ...

    ReplyDelete
  2. चिंतन ! आखिर कब तक
    निर्वाण मनचाही पेंटिंग ही तो है !!!
    यही तो निर्वाण है………सुन्दर प्रस्तुति।
    परिचय को जो नया अन्दाज़ दिया है बहुत ही सुन्दर है।

    ReplyDelete
  3. किसी रेखा की ज़रूरत नहीं होती..

    भाव केंद्रित सुन्दर रचना के लिए साधुवाद स्वीकारें.

    ReplyDelete
  4. zindgi ke kai aayaamon ko samet.ti rachna, shubhkaamnaayen.

    ReplyDelete
  5. मन के झंझावातों की
    कोई शक्ल भी तो नहीं होती

    सही बात है दीदी, कई बार ऐसा होता है कि हमें अपने अंदर चल रहे उधेड़बुन समझ में नहीं आता है ...

    सुन्दर कविता !

    ReplyDelete
  6. रश्मि जी बहुत ही गहनता और भाव विभोर हो कर लिखा है आपने .मन को छू गयी बात.
    --'प्रसाद कुटी ' की ताकत लेकर लिखती गई, मिटाती भी गई... अचानक प्रवाह मिला, अनुपम, अलौकिक शब्दों का स्पर्श मिला , आँखों में सपने-ही-सपने भर गए......जब नया आयाम मिला !कोई नाम नहीं, कोई रिश्ता नहीं ... पर जन्मों का साथ लगा - कोई आत्मा या परमात्मा या ... जो भी कह लो.., मैंने खुद नहीं जाना तो तुम्हें क्या बताऊँ - बस इतना सच है कि मैं उसे जानती हूँ , वह मेरी प्रेरणा, मेरा प्रवाह, मेरा सामर्थ्य है और उसके साथ मैं हूँ "--
    - विजय तिवारी "किसलय " जबलपुर.
    सकारात्मक एवं आदर्श ब्लागिंग की दिशा में अग्रसर होना ब्लागर्स का दायित्त्व है : जबलपुर ब्लागिंग कार्यशाला पर विशेष.

    ReplyDelete
  7. कोई नाम नहीं, कोई रिश्ता नहीं ... पर जन्मों का साथ लगा - कोई आत्मा या परमात्मा या ... जो भी कह लो.., मैंने खुद नहीं जाना तो तुम्हें क्या बताऊँ - बस इतना सच है कि मैं उसे जानती हूँ , वह मेरी प्रेरणा, मेरा प्रवाह, मेरा सामर्थ्य है और उसके साथ मैं हूँ ....दिल से निकला हर एक शब्‍द जैसे घर कर गया हो कहीं अन्‍तर्मन में ....आपकी लेखनी को नमन आप यूं ही अनवरत लिखती रहें, औरों को प्ररेणा देती रहें ...शुभकामनाओं के साथ ...।

    ReplyDelete
  8. पहचान बनाने से लेकर पहचान बनने तक यदि इंसान , इंसान ही रहे तो सचमुच वो खुदा का पहचान बनता है , और यह सब बिना संस्कार के संभव नही !
    तभी तो उस एक के पहचान से सबकी पहचान होती है .

    ReplyDelete
  9. रचना और परिचय दोनों ही प्रभावशाली!
    सादर!

    ReplyDelete
  10. पहचान बनानी नहीं पड़ती , इसी तरह से कैनवास पर उभरी लकीरें अपनी कहानी खुद ही बयान कर देती हैं. मन के भावों को लिखना नहीं पड़ता बल्कि वे तो खुद ही फूट पड़ते हैं और अपनी कहानी बयान कर देते हैं.

    ReplyDelete
  11. aapne atyant hi mohak dhang se apna parichay diya hai.bahot atmiye laga.

    ReplyDelete
  12. सुंदर रचना के लिए साधुवाद ढ़ेर सारी बधाईयाँ

    ReplyDelete
  13. द्वन्द की भी एक उम्र होती है
    मनचाही पेंटिंग द्वन्द के बिना कहाँ?

    ReplyDelete
  14. द्वन्द की भी एक उम्र होती है .....
    और खुद की भी.....
    और रश्मि दी... दोनों ही जीवन के कोरे कैनवसों पर अपनी अदृश्य छाप छोड़ के जाती हैं....
    उन पेंटिंग्स की लकीरें हम तमाम उम्र बांचते हैं फिर.....
    कभी रंगों की रंगीनियाँ दिखती हैं...कभी कैनवस का खालीपन हावी हो जाता है ....!
    दीदी आपकी इस कविता ने.... इस चिंतन ने मेरे चिंतन की धरा को इक मोड़ दिया.....
    और मैं अपने ही कनवास को बांचने की कोशिश करने लगी...... ! :)

    ReplyDelete

 
Top