एक लम्बी यात्रा करनी है....
हमारे वक्त में जो मासूमियत हुआ करती थी
उसके बीज ढूंढने हैं...
रात को जब सब नींद के आगोश में होंगे
तब हर आँगन में एक बीज लगाउंगी
ख्वाहिश है ,
...ओस की नमी से पनपी,
भोर की पहली किरण से निखरी मासूमियत
हर आँगन में खिलखिलाए
और लम्हों में एक सुकून भर जाए...
रश्मि प्रभा
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दायरे
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बचपन में कभी कभी
टूटे पंख घर ले आती थी
अब्बू को दिखाती थी..
अब्बू यूँ ही कह देते-......
"इसे तकिये के नीचे रख दो
और सो जाओ
सुबह तक भूल जाओ
वो दस रुपये में बदल जाएगा
बाज़ार जाना
जो चाहे खरीद लाना..."
मैं ऐसा ही करती ...
रात में अब्बू चुपके से
पंख हटा कर दस रुपये रख देते..
सुबह उठते ही बेसब्री से
दुकाने खुलने का इंतज़ार करती
कोई एक मासूम सा सपना
खरीद लाती ...
.......वो सोच कर आज मैं
एक उदास हंसी हंस देती हूँ....
अब चाहे कितने ही टूटे हुए पंख
कितने ही रुपयों में क्यूँ न बदल जाएं
वो मुस्कराहट
वो ख़ुशी
नहीं खरीद सकते.....
हमारी बेहद ख्वाहिशें
ज़रुरत से ज़्यादा बड़े सपने
इनके दायरे में नहीं समाते ...
.....या फिर यूँ कहें
किसी दायरे में नहीं समाते....
()क्षितिजा
शिक्षा : MPhil (Clinical Psychology),
शौक :संगीत का शौक है ...
कत्थक सीखा है ...
शास्त्रीय संगीत (गायन) भी सीखा है ...
पेंटिंग्स भी बनती हूँ ...
पढने का भी शौक है ...
और थोडा बहुत लिख भी लेती हूँ ...
email id : xitija.singh@gmail.com
शिक्षा : MPhil (Clinical Psychology),
शौक :संगीत का शौक है ...
कत्थक सीखा है ...
शास्त्रीय संगीत (गायन) भी सीखा है ...
पेंटिंग्स भी बनती हूँ ...
पढने का भी शौक है ...
और थोडा बहुत लिख भी लेती हूँ ...
email id : xitija.singh@gmail.com
हमारी बेहद ख्वाहिशें
ReplyDeleteज़रुरत से ज़्यादा बड़े सपने
इनके दायरे में नहीं समाते ...
.....या फिर यूँ कहें
किसी दायरे में नहीं समाते....
वाह!अच्छी अभिव्यक्ति!सच भी है,क्योंकि:
"ख्याब शीशे के हैं,किर्चों के सिवा क्या देंगें,
टूट जायेंगे तो ज़ख्मों के सिवा क्या देंगें।"
_Ktheleo
www.sachmein.blogspot.com
बहुत खूबसूरत ...बचपन कितना भोला होता है ....
ReplyDeleteक्षितिजा जी को यहाँ पढना अच्छा लगा...
ReplyDeleteएक लम्बी यात्रा करनी है....
ReplyDeleteहमारे वक्त में जो मासूमियत हुआ करती थी
उसके बीज ढूंढने हैं...
रात को जब सब नींद के आगोश में होंगे
तब हर आँगन में एक बीज लगाउंगी
ख्वाहिश है ,
...ओस की नमी से पनपी,
भोर की पहली किरण से निखरी मासूमियत
हर आँगन में खिलखिलाए
और लम्हों में एक सुकून भर जाए...
रश्मि जी ,
जब फसल उग जाए तो कुछ बीज मुझे भी भेज दीजियेगा ....आज मासूमियत नहीं मिलती ....
हमारी बेहद ख्वाहिशें
ReplyDeleteज़रुरत से ज़्यादा बड़े सपने
इनके दायरे में नहीं समाते ...
.....या फिर यूँ कहें
किसी दायरे में नहीं समाते..
reallly tooooooooo good .simple and honest poetry is this .............
संगीता जी आपसे असहमत हू,मासूमियत तो हमारे आप के बीच मे ही जिंदा है बस...............महसूस करने की जरूरत है
ReplyDeleteहमारे वक्त में जो मासूमियत हुआ करती थी
उसके बीज ढूंढने हैं...
रात को जब सब नींद के आगोश में होंगे
तब हर आँगन में एक बीज लगाउंगी
ख्वाहिश है ,
...ओस की नमी से पनपी,
भोर की पहली किरण से निखरी मासूमियत
हर आँगन में खिलखिलाए
और लम्हों में एक सुकून भर जाए...
दिल को छू गयी है ये पंक्तियां
"अब चाहे कितने ही टूटे हुए पंख
ReplyDeleteकितने ही रुपयों में क्यूँ न बदल जाएं
वो मुस्कराहट
वो ख़ुशी
नहीं खरीद सकते....."
वाकई मासूमियत एक अंदाज़ है , जिसे हम आज भी महसूस कर सकते है . बचपन में ये अंदाज़ महसूस करने की ज़रूरत नही होती थी क्योंकि और कोई अंदाज़ भी तो नही था जीने का हमारे पास .
शायद इसलिए बचपन भोला था .
बिल्कुल सही कह रही हैं वो मासूमियत लौट्कर नही आती।
ReplyDeleteहमारे समय जैसी मासूमियत हममे तो है , मगर हमारे समय के और लोगों में ना हो तो क्या किया जाए ...
ReplyDeleteमगर कोई बात नहीं ...हम मिलकर बीज लगायेंगे ...पक्का ...
बचपन की छोटी -छोटी ख्वाहिशें और उनका पूरा होना कितनी ख़ुशी भर देता है ...होते है लोंग जो राजमहल में रहकर भी खुश नहीं रह पाते ... रोज खिलने वाले फूल , उनपर पड़ी ओस की बूँद , उगते सूरज की लालिमा , ढलती शाम को जी भर निहारना ...हमें दे देता है खुशिया अपार !
सच पूछा जाये तो ओस से भरी हथेली मुझे अमीर बनाती है ... पैसे से भरी मुट्ठी ! भरनेवाले का व्यवहार हतप्रभ कर जाता है ...रोटी, कपडा और छत ज़रूरत हैं, पर खुशियाँ छीन लेते हैं
ReplyDeleteज़रुरत से ज़्यादा बड़े सपने
ReplyDeleteइनके दायरे में नहीं समाते ...
.....या फिर यूँ कहें
किसी दायरे में नहीं समाते....
हाँ ऐसा तो होता है ... जैसे जैसे मासूमियत खो जाती है, सपने इतने बड़े हो जाते हैं कि छोटी छोटी खुशियों को हम भूल जाते हैं, महसूस नहीं कर पाते हैं ..
rashmijee aur chitijajee ne milkar jase sone men suhaga dal diya hai.
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना !
ReplyDeleteख्वाहिश है ,
ReplyDelete...ओस की नमी से पनपी,
भोर की पहली किरण से निखरी मासूमियत
हर आँगन में खिलखिलाए
और लम्हों में एक सुकून भर जाए...
पहले तो इन पँक्तिओं के लिये बधाई स्वीकारें।
हमारी बेहद ख्वाहिशें
ज़रुरत से ज़्यादा बड़े सपने
इनके दायरे में नहीं समाते ...
.....या फिर यूँ कहें
किसी दायरे में नहीं समाते...
दिल को छू गयी ये पँक्तियाँ दायरे बहुत छोटे होते हैं लेकिन ख्वाहिशों के पँख तो आसमा से भी बडे।ाउर बचपन के मासूम सपने खवाहिशें तो यथार्थ की जमीं तक आते आते ही दम तोड देते हैं। बहुत अच्छी रचना। क्षितिका जी को बधाई।
मासूमियत से भरी बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteहमारी बेहद ख्वाहिशें
ReplyDeleteज़रुरत से ज़्यादा बड़े सपने
इनके दायरे में नहीं समाते ...
.....या फिर यूँ कहें
किसी दायरे में नहीं समाते..
बहुत ही भावमय करते शब्द ...बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
सुन्दर रचना!
ReplyDeleteमन को छूती हुई रचना..
ReplyDeleteबेहतरीन रचना!
ReplyDeleteहमारी बेहद ख्वाहिशें
ReplyDeleteज़रुरत से ज़्यादा बड़े सपने
इनके दायरे में नहीं समाते ...
.....या फिर यूँ कहें
किसी दायरे में नहीं समाते....
बचपन कितना मासूम होता है. लेकिन उम्र के साथ ख्वाहिशों और सपनों की दीवारें इतनी ऊँची होती जाती हैं कि उनको चढ़ते चढ़ते हम जीवन की छोटी छोटी पर महत्वपूर्ण खुशियाँ पीछे छोड़ देते हैं. बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति..आभार
vah kya baat hai
ReplyDeletesundar bahut sundar
ReplyDelete"jarurate hain ki puri hi nhi hoti,
badhai
वाह
ReplyDelete...
मैं भी हर रात सपने सजाती हूँ... पर मासूमियत कायम रहती है अगली रात तक...
bachapan ki bat hi aur hai aur unke masoom sapne....aaaj sab hote hue bhi vaise sapne nahi na vo masoomiyat....
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