तरु और लता...
पूरा दिन ना सही एक पल ही काफी है
प्यार को पढ़ने के लिए
नज़्म से रूह
रूह से नज़्म में बदलने के लिए !
रश्मि प्रभा
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तरु और लता......
कहीं किसी एक कानन में, था सघन वृक्ष एक पला बढ़ा,
था उन्नत उसका अंग अंग, गर्वोन्नत भू पर अडिग अड़ा.
वहीँ पार्श्व में पनपी थी, कोमल तन सुन्दर एक लता.
नित निरख निरख तरु की दृढ़ता, हर्षित उसका चित था डोला.
तरुनाई कोमलता उसकी , तरुवर के मन को भी भायी,
निज शाख झुकाकर उसने भी, कोंपल की उंगली थाम ही ली.
प्रिय ने जो अंगीकार किया, तन मन अपना वह वार चली,
हर शाख शाख पत्ते पत्ते, लिपटी लिपटी वह खूब खिली.
था प्रेम प्रगाढ़ ही दोनों में,पर तरु का मन था अहम् भरा,
आश्रयदाता अवलम्बन वह ,यह भी मन में था बसा रहा.
लघु तुच्छ सदा उसे ठहरा कर, तरु तुष्टि बड़ा ही पाता था,
निज लाचारी को देख ,लता का ह्रिदय क्षुब्ध हो जाता था.
था आत्मविश्वास न रंचमात्र, जो प्रतिकार वह कर पाती,
अपमान गरल नित पी पीकर, भाग्य मान सब सह जाती.
आशंका से मन था कम्पित, कहीं तरु निज हाथ छुड़ा न ले,
कैसे उस बिन जी पायेगी, कहाँ जायेगी इस तन को ले.
तरु ने यदि त्याग दिया उसको,फिर कहाँ ठौर वह पायेगी,
जो भूमि पड़ी उसकी काया, पद से नित कुचली जायेगी.
था पड़ा सुप्त उसका चेतन, उसको न किंचित भान रहा,
योगक्षेम वाहक जग का, अखिलेश्वर केवल एक हुआ.
जीवन दाता सब जीवों का, सुखकर्ता सबका दुःख हरता,
उसकी कृति ही हर एक प्राणी,नहीं कोई हीन न कोई बड़ा.
सत का सूरज उर में प्रकटा , निर्भय विभोर निश्चिन्त हुई,
मृदुस्वर से प्रिय को समझाकर, उस से हित की ये बात कही.
है सत्य मेरे आधार तुम्ही, तेरे प्रश्रय से विस्तार मेरा,
तुम सदा रहे रक्षक मेरे, तुमसे सुरभित संसार मेरा.
पर तुच्छ नहीं मैं भी इतनी, है व्यर्थ नहीं मेरा होना,
जिस सर्जक की तुम रचना हो,वह ही तो मेरा हेतु बना.
माना कि तुम सम बली नहीं,तुम सा मेरा सामर्थ्य नहीं,
पर कर्तब्य परायण मैं भी हूँ, कभी छोड़ा तेरा संग नहीं.
तुम मुझे सम्हाले रहते हो, तो मैं भी तो रक्षक तेरी,
हो धूप कि आंधी या वर्षा,तुझसे पहले मैं सह लेती .
विपदा जो तेरी ओर बढे ,मैं सदा ढाल बन अडती हूँ ,
मेरे होते कोई वार करे, यह कभी न मैं सह सकती हूँ.
चाहा तेरा है साथ सदा, चाहे जिस ओर गति तेरी,
ही जीवन भर संग रहूँ , नहीं दूजी कोई साध मेरी.
फिर क्या तुलना क्या रंज भेद, क्यों मन में कोई घाव भरें,
आ स्नेह से हिल मिल संग रहें,क्यों सुखमय जीवन नष्ट करें.
था सार छुपा इसमें सुख का, तरुवर के मन को भी भाया,
जो अहम् बना दुःख का कारण, तरुवर ने उसको त्याग दिया.
रंजना सिंह
शिक्षा- एम् ए
कर्मक्षेत्र - आई टी (प्रबंध निदेशिका)
निवास - जमशेदपुर , झारखण्ड.
रूचि - साहित्य, संगीत
ब्लॉग - संवेदना संसार
बहुत गहन अभिव्यक्ति ....सन्देश परक रचना
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर एवं भावमय करते शब्द ..।
ReplyDeleteबेहतरीन कविता ! बहुत सुन्दर सन्देश दे रही है !
ReplyDeletevattvrikshha par bahut saari rachnaye padhi............inme se sayad ye top five ke bich ki hai.....
ReplyDeleteshandaaar..........aur shabd nahi hai..
सुन्दर सन्देश देती गहन अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete"तरुनाई कोमलता उसकी , तरुवर के मन को भी भायी,
ReplyDeleteनिज शाख झुकाकर उसने भी, कोंपल की उंगली थाम ही ली.
प्रिय ने जो अंगीकार किया, तन मन अपना वह वार चली,
हर शाख शाख पत्ते पत्ते, लिपटी लिपटी वह खूब खिली."
रंजना जी वाकई बहुत दिनों बाद छायावाद की छांव देखने को मिली. प्रेम-रस की अद्भुत सर्जना देखने को मिली.आपको बधाई और आदरणीय दीदी का ऐसी रचना वटवृक्ष पर रखने के लिए बहुत-बहुत आभार.
अपने ब्लॉग पर रचना को स्थान दे मान देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार !!!
ReplyDeleteचाहा तेरा है साथ सदा, चाहे जिस ओर गति तेरी,
ReplyDeleteही जीवन भर संग रहूँ , नहीं दूजी कोई साध मेरी.
फिर क्या तुलना क्या रंज भेद, क्यों मन में कोई घाव भरें,
आ स्नेह से हिल मिल संग रहें,क्यों सुखमय जीवन नष्ट करें.
...सार्थक सन्देश देती हुयी मर्मस्पर्शी रचना .......
बहुत दिनों बाद ऎसी रचना पढ़ने को मिली
ReplyDeleteबहुत बढ़िया !
पूरा दिन ना सही एक पल ही काफी है
ReplyDeleteप्यार को पढ़ने के लिए
नज़्म से रूह
रूह से नज़्म में बदलने के लिए !
बस उसी एक पल का तो इंतज़ार है...
रंजना जी को पढ़कर बहुत अच्छा लगा...
धन्यवाद...
तुम मुझे सम्हाले रहते हो, तो मैं भी तो रक्षक तेरी,
ReplyDeleteहो धूप कि आंधी या वर्षा,तुझसे पहले मैं सह लेती
सह अस्तित्व ही जीवन का सत्य है
बहुत सुन्दर रचना
रंजना सिंह की सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए आभार!
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति..... रंजना की रचना को साझा करने के लिए आभार ....
ReplyDeleteफिर क्या तुलना क्या रंज भेद, क्यों मन में कोई घाव भरें,
ReplyDeleteआ स्नेह से हिल मिल संग रहें,क्यों सुखमय जीवन नष्ट करें.
था सार छुपा इसमें सुख का, तरुवर के मन को भी भाया,
जो अहम् बना दुःख का कारण, तरुवर ने उसको त्याग दिया.
Bahut hi saar garbht......
pant ji ke yug men le jaane ke liye dhanyavaaad.puree rachanaa ko ek saans men padh gayaa.
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