लिखता हूँ , लिख नहीं पाता
गुनता हूँ , कह नहीं पाता
पर चाहता तो हूँ - बहुत कुछ तुम तक पहुँचाना
मन के कैनवस पर उभरती हैं यादें
रंग भरूँ - उससे पहले
कभी मैं बारिश हो जाता हूँ , कभी शिला
यकीन करो-
हर बूंदें शब्द सी होती हैं
शिला के गर्भ में मेरी प्रस्फुटित भावनाएं होती हैं
... मैं मर नहीं सकता , जब तक लिख नहीं लेता
अब इसे अभिशाप कहो या वरदान !
रश्मि प्रभा
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... पुन: तुम्हें लिखता हूँ
जब तुम्हें लिखता हूँ, स्वेद नहीं, झरते हैं अंगुलियों से अश्रु।
सीलता है कागज और सब कुछ रह जाता है कोरा
(वैसे ही कि पुन: लिखना हो जैसे)। जब तुम्हें लिखता हूँ।
नहीं, कुछ भी स्याह नहीं, अक्षर प्रकाश तंतु होते हैं
(स्याही को रोशनाई यूँ कहते हैं)।
श्वेत पर श्वेत। बस मुझे दिखते हैं।
भीतर भीगता हूँ, त्वचा पर रोम रोम उछ्लती है ऊष्मा यूँ कि मैं सीझता हूँ।
फिर भी कच्चा रहता हूँ
(सहना फिर फिर अगन अदहन)।
जब तुम्हें लिखता हूँ।
डबडबाई आँखों तले दृश्य जी उठते हैं।
बनते हैं लैंडस्केप तमाम। तुम्हारे धुँधलके से मैं चित्रकार।
फेरता हूँ कोरेपन पर हाथ। प्रार्थनायें सँवरती हैं।
उकेर जाती हैं अक्षत आशीर्वादों के चन्द्रहार।
शीतलता उफनती है। उड़ते हैं गह्वर कपूर।
मैं सिहरता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।
हाँ, काँपते हैं छ्न्द। अक्षर शब्दों से निकल छूट जाते हैं गोधूलि के बच्चों से।
गदबेर धूल उड़ती है, सन जाते हैं केश। देखता हूँ तुम्हें उतरते।
गेह नेह भरता है। रात रात चमकता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।
जानता हूँ कि उच्छवासों में आह बहुत।
पहुँचती है आँच द्युलोक पार।
तुम धरा धरोहर कैसे बच सकोगी?
खिलखिलाती हैं अभिशप्त लहरियाँ। पवन करता है अट्टहास।
उड़ जाते हैं अक्षर, शब्द, वाक्य, अनुच्छेद, कवितायें। बस मैं बचता हूँ।
स्वयं से ईर्ष्या करता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।
न आना, न मिलना। दूर रहना। हर बात अधूरी रहे कि जैसे तब थी और रहती है हर पन्ने के चुकने तक।
थी और है नियति यह कि हमारी बातें हम तक न पहुँचें। फिर भी कसकता हूँ।
अधूरा रहता हूँ। जब तुम्हें लिखता हूँ।
तुम्हें चाहा कि स्वयं को? जीवित हूँ। खंड खंड मरता हूँ।
साँस साँस जीवन भरता हूँ। मैं तुम्हें लिखता हूँ।
गिरिजेश राव
दिल को छू लेने वाली सुंदर कविता
ReplyDeleteसुंदर!
ReplyDeletesundar rachana
ReplyDeleteWaah! kitna sahsakt sampreshan?
ReplyDeleteAll in one sentence. Thanks for such type sensitive poem. Again thanks sir...
... पुन: तुम्हें लिखता हूँ
ReplyDeleteसुंदर कविता.....
जब तुम्हें लिखता हूँ, स्वेद नहीं, झरते हैं अंगुलियों से अश्रु।
ReplyDeleteसीलता है कागज और सब कुछ रह जाता है कोरा
(वैसे ही कि पुन: लिखना हो जैसे)। जब तुम्हें लिखता हूँ।
नहीं, कुछ भी स्याह नहीं, अक्षर प्रकाश तंतु होते हैं
(स्याही को रोशनाई यूँ(हीं नहीं) कहते हैं)
सिहरन सी अनुभव कराती रचना.... !! अति सुन्दर.... !!
बहुत सारे भाव देखने को मिले इस एक रचना में.....
ReplyDeleteअति सुन्दर भाव!
ReplyDeleteखूबसूरत है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मनमोहक सृजन ,,,,, बधाईयाँ जी /
ReplyDeleteश्वेत पर श्वेत। बस मुझे दिखते हैं।
ReplyDeleteभीतर भीगता हूँ, त्वचा पर रोम रोम उछ्लती है ऊष्मा यूँ कि मैं सीझता हूँ।
क्या लिखा है! बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति,
शुभकामनाएं
anupam post.....
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