आत्मा अमर है तो हम हैं ... प्रश्न उठता है आत्मा जीवन है या शरीर जीवन है . यदि शरीर नश्वर है तो आत्मा ही जीवन है - और शरीर आधार . पत्थर के अन्दर भगवान् है , तो क्या पत्थर के टुकड़ों से भगवान् के टुकड़े हो जाते हैं ? - नहीं न . तो शरीर को जला दें , या प्रवाहित कर दें ... जीवन तो है , किसी अन्य शरीर की प्रतीक्षा में . जीवन की प्रक्रिया निरंतर है -
सोच के इस बिंदु पर मुझे लगा कि औरों की सोच से एक मुलाकात करूँ ...
चलिए आपको भी मिलाऊं - रश्मि प्रभा
चलिए आपको भी मिलाऊं - रश्मि प्रभा
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आत्मा है तो जीवन है....जीवन है तो आत्मा का आभास ....आत्म सर्वदा व्याप्त है .....तो जीवन भी हमेशा आत्मा से जीवन का सम्बन्ध शाश्वत है . बिना आत्मा के जीवन संभव ही नहीं . और बिना जीवन के आत्मा सिर्फ एक ज्योतिपुंज , शाश्वत, नित्य , अजन्मा , अमर , निराकार ब्रह्म्वरूप ही है .अगर आत्मा है तभी जीवन संभव है और जब जीवन मिलता है तब आत्मा को एक आकार मिल जाता है , एक नाम मिल जाता है और जीवन जीने का एक उद्देश्य . बस यहीं आकार जीवन मात खा जाता है अपने असल उद्देश्य को भूल जाता है और ज़िन्दगी के प्रपंचों में फँस कर तबाह हो जाता है मगर आत्मा तो निर्लेप रहती है उस पर फर्क नहीं पड़ता वो तो अपना समय पूरा करती है और दूसरा चोला धारण कर लेती है और फिर जीवन से उसका सम्बन्ध जुड़ जाता है और सृष्टि क्रम यूँ ही चलता रहता है तब तक जब तक आत्मा अपने ज्योतिपुंज रूप को फिर से प्राप्त नहीं कर लेती है . सभी सुख दुखों से परे बस इतना ही आत्मा का जीवन से सम्बन्ध होता है .
अनुभव प्रिय
( पटना डीपीस के छात्र )
आत्मा और जीवन?
आत्मा ही जीवन को जन्म देती है|'इदं भस्मान्तं शरीरं' - ईशावास्योपनिषद में लिखा है|अर्थात यह शरीर नश्वर है, हम सब यह तो जानते ही हैं कि आत्मा जिस क्षण शरीर का परित्याग करती है उसी क्षण शरीर की मृत्यु हो जाती है|अतः स्पष्ट है कि जीवन को जन्म देती है यही आत्मा| आत्मा जो अविनाशी है, शाश्वत है वही जीवन की ज्योति प्रज्ज्वलित करती है|
ज्यों किसी विद्युत-चलंत यंत्र का विद्युत-प्रवाह रोक देने पर वह निष्क्रिय हो जाता है, त्यों ही आत्मा के निकलते ही, शरीर यह हमारा निष्क्रिय हो जाता है, गतिहीन हो जाता है|
मनुष्य को अस्तित्व में आने के लिए प्राण चाहिएँ, जो आत्मा से ही संभव है| आत्मा अस्तित्वदायी है, प्राणदायी है, जीवनदायी है|
जड़ को चेतन में परिवर्तित करने वाला ब्रह्म है, जो कि आत्मा है | आत्मा और परमात्मा में मात्र 'परम' इस शब्दांश का भेद है, अन्यथा कुछ नहीं |
'अहम ब्रह्मास्मि'(मैं, आत्मा, ब्रह्म हूँ) व 'तत् त्वमसि'(वही, ब्रह्म; तुम, आत्मा हो) इस बात कि पुष्टि करते हैं| कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा, परमात्मा है और जीवन देती है| ब्रह्माण्ड में विस्तृत सर्व-मूलतत्वों के समाहारोपरांत, आत्मा उसे गतिशील बना देती है |
अतः मैं अपनी बात यहाँ समाप्त करता हूँ, पुनः उसी बात को लिखकर कि आत्मा ही जीवन को जन्म देती है|
अंजू अनन्या
http://anjuananya.blogspot.in/
आत्मा और जीवन .........एक ही सिक्के के दो पहलू .....रहता है....आत्मा भाव है निराकार है ....भाव की अभिव्यक्ति साकार होती है वैसे ही आत्मा को स्वरुप चाहिए ....आत्मा का भौतिकता से जुड़ना जीवन है .....जीवन आत्मा द्वारा आभासित होता है .....शास्त्रगत आत्मा मरती नही तो जन्म भी नही लेती ....मतलब हमेशा रहती है एक शरीर छोड़ दुसरे को अपना लेती है .....अभिव्यक्ति के लिए उसे शरीर चाहिए ....इसी लिए जब शरीर मिटटी होता है ....कभी कभी जल्दबाजी में आत्मा किसी भी शरीर में वो कीट पतंगा ....जानवर या दुष्ट क्रिया में प्रवेश कर लेती है ...शरीर के बिना जीवन का आभास नही होता ....../
जब इस विषय पर विचार रखने का सन्देश मिला ...मैं सोच रही थी ....क्यूंकि भाव जब होता है तो शब्द स्वयंम आते है....लेकिन एक हादसा हुआ ....छोटा सा एक्सिडेंट ....और एक बारगी तो हिल गई ..../ कुछ ऐसा हो जाता तो.....बस अहसास हुआ जीवन का .....आभास आत्मा ने करवाया यही जीवन है ...../पता नही मुद्दे को स्पष्ट कर पाई हूँ या नही ...../पर मेरा मानना यही है " जीवन जीवन होता है ....भिन्न होता है तो दृष्टिकोण ....आत्मा दृष्टि है ....जीवन सृष्टि है ....दोनों पूरक है ....."
"बाहर खिली तो धूप हुई .....
भीतर उतरी तो नूर हुई .....
एक बूँद इनायत की उसकी ,
बरसी तो नुपुर हुई ........"
गार्गी मिश्रा
gargi@dakhalandazi.co.in
आत्मा का जीवन से संबंध वैसा ही है जैसे किसी महासागर का क्षितिज से होता है ... जीवन महासागर है , अनन्त है और आत्मा क्षितिज है , शाश्वत है , वो नियम है ... आत्मा शरीर रुपी सूरज की तरह , उगती है और अस्त भी होती है ... और ये नियम चलता रहता है .. हर क्षण"बाहर खिली तो धूप हुई .....
भीतर उतरी तो नूर हुई .....
एक बूँद इनायत की उसकी ,
बरसी तो नुपुर हुई ........"
गार्गी मिश्रा
gargi@dakhalandazi.co.in
विभा रानी श्रीवास्तव
http://vranishrivastava1.blogspot.in/
"आत्मा" का सीधा-सादा अर्थ निकाले तो "प्राण" ,जिसके बिना तो जीवन की कल्पना ही नही की जा सकती | लेकिन हम यहाँ आत्मा का अर्थ ज़मीर से लेते है | तो "आत्मा" दो तरह की होती है |पहली , "भली आत्मा" और दूसरी , बुरी आत्मा | "भली आत्मा" को परिभाषित करें , तो जिन इंसानों में - क्षमा ,अहिंसा ,स्नेह ,दया ,तपस्या ,सेवा ,भक्ती जैसे गुण हों ,उनकी आत्मा भली कहलाती है..... और "बुरी आत्मा" को परिभाषित करें , तो जिन इंसानों में - क्रोध ,लोभ ,इर्ष्या ,हिंसा जैसे गुण हों ,उनकी आत्मा बुरी कहलाती है ,लेकिन ये इंसानी गुण है तो सभी इंसानों में रहती ही है और समय पाकर इंसानों पर हावी होती है | कहते है ,"अगुंलिमार डाकू" सुधर कर रामायण की रचना कर डाली और "रावण" जैसा विद्वान पंडित अपने साथ-साथ अपने वंश का नष्ट कर डाला........ | आज हमसभी जो रोज कालाबाजारी - भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा रहे है वो हमारे में भली आत्मा या यूँ कहे जमीर अभी जिन्दा है और जो लोग रोज कालाबाजारी - भ्रष्टाचार में लिप्त है उनकी तो आत्मा ना अच्छी और ना बुरी ,उनकी तो आत्मा मर चुकी है.... | अत: हम यह कह ले बिना आत्मा का इन्सान जानवर से भी गया-गुजरा है.... |
रजनी नय्यर मल्होत्रा
http://rajninayyarmalhotra.blogspot.in/
यूँ तो आत्मा नश्वर है, पर जीवन एक अवधि में समाप्त हो जाने वाली | एक अभिप्राय जीवन का अर्थ जीवित रहना है ,तो इस सन्दर्भ में आत्मा का जीवन से वही सम्बन्ध है जो शरीर का प्राण से, मछली का जल से, साज़ का सुर से.... और दुसरे पहलू से देखें तो जीवन में कर्म का उदेश्य और उसकी प्राप्ति की जदोजहद ही जीवन है | यहाँ आत्मा जितनी शुद्ध होगी ,बलि होगी उसके जीवन में उदेश्य की प्राप्ति और सत्कर्म में गुणों की प्रधानता होगी | जीवन का आत्मा से सम्बन्ध दोनों ही रूपों में परस्पर लिए हुए है. | जीवन में जीने की प्रेरणा और उदेश्य हमें शरीर से नहीं आत्मा से मिलती है पर उसे पूरा करने में अहम् भूमिका शरीर की होती है ,हमारा अंतर्मन (आत्मा) जिस कर्म या वस्तु की अभिलाषा करता है उसे पूर्ण करने में शरीर का होना जरुरी है ,मन बलवती है पर तन साथ नहीं दे रहा तो ऐसे में जीवन बोझ है अतः जीवन में आत्मा के साथ शरीर का होना बेहद जरुरी है हम कह सकते हैं जीवन दोनों का है - आत्मा और शरीर का , यहाँ भी दोनों परस्पर सहयोगी हैं|
स्कूल में पढ़ते हुए कभी किसी कागज़ पर अपनी ही लिखी कुछ पंक्तियाँ याद है ...आत्मा परमात्मा का अंश है तो बुरे लोंग भी तो उसी परमात्मा का अंश है , उनके किये काम भी तो ईश्वर के ही हैं तो फिर उनसे नफरत क्यों ...बड़े होने पर समझ आया कि आत्मा अंश है ईश्वर का मगर जीवन के लिए उसने जो बुद्धि प्रदान की उसे विवेक भी दिया है ! कुछ लोंग इसका प्रयोग करते हैं , कुछ नहीं करते
ReplyDeleteआत्मा और शरीर में फर्क यही है !
अच्छा विमर्श !
बहुत गहन विषय है यह...अच्छा लगा पढ़कर, आत्मा जब देह धरती है तब भोक्ता है, शरीर साधन है. देहातीत होने पर वह परमात्मा के समकक्ष ही है.ऐसा मेरा मानना है.
ReplyDeleteकाफ़ी अच्छा विमर्श है और जीवन को आत्मा से जोडने का सबका नज़रिया चाहे अलग हो मगर उद्देश्य सबका एक ही है और हल भी……………वाणी जी का कहना भी सही है…………ये एक बेहद गंभीर चिन्तन है।
ReplyDeleteआत्मा और जीवन ... आत्मा अमर ... आत्मा का अर्थ प्राण वर्ना ये तन निष्प्राण ... बहुत ही गहन भावों से परिचित कराती पोस्ट ... सार्थक प्रयास ..आभार आपका इस प्रस्तुति के लिए ।
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