आगे निकलने के क्रम में
हम सबसे बिछड़ गए
सूरज को पाने का दंभ लिए
अन्दर ही अन्दर जल गए
रश्मि प्रभा
अनुराग अनंत
अब ऐ ज़िन्दगी ... धीरे चलो
भागते दृश्य पलकों में ठहर नहीं पाते
कौन सा घर अपना है - जान नहीं पाते !
रश्मि प्रभा
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जिन्दगी जरा आहिस्ते चल ,
ऐ जिन्दगी जरा आहिस्ते चल ,
कहीं दौड़ते-दौड़ते न दम निकल जाए,
सकूं की तलाश चैन की चाहत में,
हम ये कहाँ बदहवासों के शहर चले आए,
सादगी खतरे में है हमारी,
डर है हमें कहीं हम भी न बदल जाएँ,
खतरनाक है सुबह यहाँ की शाम जमील है,
ये अदम खोर चौराहे,कहीं हमें भी न निगल जाएँ,
गर्मी तेज हैं यहाँ दौलत की, इंसान पिघलते हैं,
कहीं ऐसा न हो की मेरे भीतर का भी आदमी पिघल जाए,
हर कोई डंक मरता है यहाँ सांप और बिछुओं की तरह,
बात करता नहीं कोई ऐसी की दिल ये बहल जाए,
बड़ी ताजीब-ओ-सलीके से जिन्दगी बसर करते हैं लोग,
कभी उनका दिल नहीं करता कि बच्चों सा मचल जाएँ,
लौट आए हैं हम गाँव की झोपडी में ''अनंत'',
बड़ा मुश्किल है की फिर लौट के शहर के महल जाएँ
अनुराग अनंत
हर कोई डंक मरता है यहाँ सांप और बिछुओं की तरह,
ReplyDeleteबात करता नहीं कोई ऐसी की दिल ये बहल जाए,
bahut sunder .....katu satya kahati hui aaj ke paripeksh me ...sargarbhit rachna ...
भागते दृश्य पलकों में ठहर नहीं पाते
ReplyDeleteकौन सा घर अपना है - जान नहीं पाते !
बड़ी ताजीब-ओ-सलीके से जिन्दगी बसर करते हैं लोग,
कभी उनका दिल नहीं करता कि बच्चों सा मचल जाएँ,
शहर क्या अब गाँवों की स्थिती भी कुछ-कुछ ऐसी ही हो चली है..... !!
काश स्थिति इस रचना से बदल पाती.... :)
तेज रफ़्तार जिंदगी है ..जैसे भागती रेलगाड़ी से सब धूमिल सा होता दीखता है ..वैसे जी अब जीवन हो चला है..
ReplyDeleteसुन्दर भूमिका और बहुत अच्छी रचना..
शुभकामनाएँ..
bahut khoob :)
ReplyDeleteअब ऐ ज़िन्दगी ... धीरे चलो....uspar anuragjee ki kavita,kya boloon....lazabab hai.
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ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना..
ReplyDeleteसुंदर रचना! बधाई.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजिंदगी जरा आहिस्ता चल ...
आप सभी सुधि पाठकों का धन्यवाद जो आपने मेरी पीड़ा और कथित रचना को समझा ............धन्यवाद
ReplyDeleteरश्मि जी का विशेष आभार ..जो उन्होंने आपसब मित्रों से परिचय करवाया ............मिल कर बहुत खुशी हुई .......
ReplyDeleteआगे निकलने के क्रम में
ReplyDeleteहम सबसे बिछड़ गए
बिल्कुल सही बात कही है आपने ...आभार ।
ये अदम खोर चौराहे,कहीं हमें भी न निगल जाएँ,
ReplyDeleteगर्मी तेज हैं यहाँ दौलत की, इंसान पिघलते हैं,
कहीं ऐसा न हो की मेरे भीतर का भी आदमी पिघल जाए....waah! bahut sundar..
sundar sarthak prastuti...
sundar rachna..bahut bahut badhaai
ReplyDeletesundar
ReplyDeletebahut sundar bade sach ko darshati prastuti.
ReplyDeleteडर है हमें कहीं हम भी न बदल जाएँ!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है आपने.