कुछ शब्द छोटी सी कहानी और बड़े अर्थ ... सीखने के लिए बहुत है

रश्मि प्रभा 





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जैसा अन्न वैसा मन!!


एक साधु ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए जा रहे थे और एक गांव में प्रवेश
करते ही शाम हो गई। ग्रामसीमा पर स्थित पहले ही घर में आश्रय मांगा,वहां एक पुरुष
था जिसने रात्री विश्राम की अनुमति दे दी। और भोजन के लिये भी कहा। साधु भोजन कर
बरामदे में पडी खाट पर सो गया। चौगान में गृहस्वामी का सुन्दर हृष्ट पुष्ट घोडा बंधा था।
साधु सोते हुए उसे निहारने लगा। साधु के मन में दुर्विचार नें डेरा जमाया, ‘यदि यह घोडा
मेरा हो जाय तो मेरा ग्रामानुग्राम विचरण सरल हो जाय’। वह सोचने लगा, जब गृहस्वामी
सो जायेगा आधी रात को मैं घोडा लेकर चुपके से चल पडुंगा। कुछ ही समय बाद गृहस्वामी को
सोया जानकर, साधु घोडा ले उडा।

कोई एक कोस जाने पर साधु ,पेड से घोडा बांधकर सो गया। प्रातः उठकर उसने
नित्यकर्म निपटाया और वापस घोडे के पास आते हुए उसके विचारों ने फ़िर गति पकडी-
‘अरे! मैने यह क्या किया? एक साधु होकर मैने चोरी की? यह कुबुद्धि मुझे क्योंकर सुझी?’
उसने घोडा गृहस्वामी को वापस लौटाने का निश्चय किया और उल्टी दिशा में चल पडा।

उसी घर में पहूँच कर गृहस्वामी से क्षमा मांगी और घोडा लौटा दिया। साधु नें
सोचा कल मैने इसके घर का अन्न खाया था, कहीं मेरी कुबुद्धि का कारण इस घर का अन्न
तो नहीं?, जिज्ञासा से उस गृहस्वामी को पूछा- 'आप काम क्या करते है,आपकी आजिविका
क्या है?' अचकाते हुए गृहस्वामी नें, साधु जानकर सच्चाई बता दी- ‘महात्मा मैं चोर हूँ,और
चोरी करके अपना जीवनयापन करता हूँ’। साधु का समाधान हो गया, चोरी से उपार्जित अन्न
का आहार पेट में जाते ही उस के मन में कुबुद्धि पैदा हो गई थी। जो प्रातः नित्यकर्म में उस
अन्न के निहार हो जाने पर ही सद्बुद्धि वापस लौटी।

अनीति से उपार्जित आहार का प्रभाव प्रत्यक्ष था।
दर्शन श्रवण की तरह आहार भी चरित्र निर्माण को प्रभावित करता है।

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लोह सौदागर


पुराने समय की बात है, रेगीस्तान क्षेत्र में रहनेवाले चार सौदागर मित्रों नें

किसी सुविधाजनक समृद्ध जगह जा बसनें का फ़ैसला किया। और अपने गांव से

निकल पडे। उन्हे एक नगर मिला जहाँ लोहे का व्यवसाय होता था। चारों ने अपने

पास के धान्य को देकर लोहा खरीद लिया, पैदल थे अत: अपने सामर्थ्य अनुसार

उठा लिया कि जहाँ बसेंगे इसे बेचकर व्यवसाय करेंगे।

आगे जाने पर एक नगर आया, जहां ताम्बा बहुतायत से मिल रहा था, लोहे की

वहां कमी थी अतः लोहे के भारोभार, समान मात्रा में ताम्बा मिल रहा था। तीन

मित्रों ने लोहा छोड ताम्बा ले लिया, पर एक मित्र को संशय हुआ, क्या पता

लोहा अधिक कीमती हो, वह लोहे से लगा रहा। चारों मित्र आगे बढे, आगे बडा

नगर था जहां चाँदी की खदाने थी, और लोहे एवं तांबे की मांग के चलते, उचित

मूल्य पर चांदी मिल रही थी। दो मित्रों ने तो ताम्बे से चाँदी को बदल दिया।

किन्तु लोह मित्र और

वे उससे बंधे रहे। ठीक उसी तरह जो आगे नगर था वहाँ सोने की खदाने थी। तब

मात्र एक मित्र नें चाँदी से सोना बदला। शेष तीनो को अपनी अपनी सामग्री

मूल्यवान लग रही थी

अन्ततः वे एक समृद्ध नगर में आ पहुँचे, इस विकसित नगर में हर धातु का

उचित मूल्यों पर व्यवसाय होता था, जहाँ हर वस्तु की विवेकपूर्वक गणनाएँ होती

थी।चारों सौदागरों ने अपने पास उपलब्ध सामग्री से व्यवसाय प्रारंभ किया।

सोने वाला मित्र उसी दिन से समृद्ध हो गया, चाँदी वाला अपेक्षाकृत कम रहा।

ताम्र सौदागर बस गुजारा भर चलाने लगा। और लोह सौदागर!! एक तो शुरू से

ही अनावश्यक बोझा ढोता रहा और यहाँ बस कर भी उसका उद्धार मुश्किल हो

गया।

वही विचारधारा सफल है जो अपना परिमार्जन करती रहती है


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संस्कार और हार


गोपालदास जी के एक पुत्र और एक पुत्री थे। उन्हे अपने पुत्र के विवाह के लिये संस्कारशील

पुत्रवधु की तलाश थी। किसी मित्र ने सुझाया कि पास के गांव में ही स्वरूपदास जी के एक

सुन्दर सुशील कन्या है।

गोपालदास जी किसी कार्य के बहाने स्वरूपदास जी के घर पहूंच गये, कन्या स्वरूपवान थी

देखते ही उन्हे पुत्रवधु के रूप में पसन्द आ गई। गोपालदास जी ने रिश्ते की बात चलाई जिसे

स्वरूपदास जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। स्वरूपदास जी की पत्नी ने मिष्ठान भोजन आदि

से आगत स्वागत की।

संयोगवश स्वरूपदास जी की पत्नी के लिये नवसहर का सोने का हार आज ही बनकर आया

था। समधन ने बडे उत्साह से समधी को दिखाया, हार वास्तव में सुन्दर था। गोपालदास जी ने

जी भरकर उस हार की तारीफ की। कुछ देर आपस में बातें चली और फ़िर गोपालदास जी ने

लौटने के लिये विदा मांगी और घर के लिये चल दिये।

चार दिन बाद ही स्वरूपदास जी की पत्नी को किसी समारोह में जाने की योजना बनी, और

उन्हे वही हार पहनना था। उन्होने ड्रॉअर का कोना कोना छान मारा पर हार नहीं मिला।

सोचने लगी हार गया तो गया कहाँ? कुछ निश्चय किया और स्वरूपदास जी को बताया कि हार

गोपालदास जी, चोरी कर गये है।

स्वरूपदास जी ने कहा भागवान! ठीक से देख, घर में ही कहीं होगा, समधी ऐसी हरक़त नहीं कर

सकते। उसने कहा मैने सब जगह देख लिया है और मुझे पूरा यकीन है हार गोपाल जी ही ले

गये है, हार देखते ही उनकी आंखे फ़ट गई थी। वे बडा घूर कर देख रहे थे, निश्चित ही हार तो

समधी जी ही लेकर गये है।आप गोपाल जी के यहां जाईए और पूछिए, देखना! हार वहां से ही

मिलेगा।

बडी ना-नुकर के बाद पत्नी की जिद्द के आगे स्वरूप जी को झुकना पडा और बडे भारी मन से

वे गोपाल जी के घर पहूंचे। आचानक स्वरूप जी को घर आया देखकर गोपाल जी शंकित हो उठे

कि क्या बात हो गई?

स्वरूपजी दुविधा में कि आखिर समधी से कैसे पूछा जाय। इधर उधर की बात करते हुए साहस

जुटा कर बोले- आप जिस दिन हमारे घर आए थे, उसी दिन घर एक हार आया था, वह मिल

नहीं रहा।

कुछ क्षण के लिये गोपाल जी विचार में पडे, और बोले अरे हां, ‘वह हार तो मैं लेकर आया था’,

मुझे अपनी पुत्री के लिये ऐसा ही हार बनवाना था, अतः सुनार को सेम्पल दिखाने के लिये, मैं

ही ले आया था। वह हार तो अब सुनार के यहां है। आप तीन दिन रुकिये और हार ले जाईए।

किन्तु असलियत में तो हार के बारे में पूछते ही गोपाल जी को आभास हो गया कि हो न हो

समधन ने चोरी का इल्जाम लगाया है।

उसी समय सुनार के यहां जाकर, देखे गये हार की डिज़ाइन के आधार पर सुनार को बिलकुल

वैसा ही हार,मात्र दो दिन में तैयार करने का आदेश दे आए। तीसरे दिन सुनार के यहाँ से हार

लाकर स्वरूप जी को सौप दिया। लिजिये सम्हालिये अपना हार।

घर आकर स्वरूप जी ने हार श्रीमति को सौपते हुए हक़िक़त बता दी। पत्नी ने कहा- मैं न

कहती थी,बाकि सब पकडे जाने पर बहाना है, भला कोई बिना बताए सोने का हार लेकर जाता है

? समधी सही व्यक्ति नहीं है, आप आज ही समाचार कर दिजिये कि यह रिश्ता नहीं हो सकता।

स्वरूप जी नें फ़ोन पर गोपाल जी को सूचना दे दी, गोपाल जी कुछ न बोले।उन्हे आभास था

ऐसा ही होना है।

सप्ताह बाद स्वरूप जी की पत्नी साफ सफ़ाई कर रही थी, उन्होने पूरा ड्रॉअर ही बाहर निकाला

तो पिछे के भाग में से हार मिला, निश्चित करने के लिये दूसरा हार ढूढा तो वह भी था। दो

हार थे। वह सोचने लगी, अरे यह तो भारी हुआ, समधी जी नें इल्जाम से बचने के लिये ऐसा ही

दूसरा हार बनवा कर दिया है।

तत्काल उसने स्वरूप जी को वस्तुस्थिति बताई, और कहा समधी जी तो बहुत उंचे खानदानी है।

ऐसे समधी खोना तो रत्न खोने के समान है। आप पुनः जाईए, उन्हें हार वापस लौटा कर

समझा कर रिश्ता पुनः जोड कर आईए। ऐसा रिश्ता बार बार नहीं मिलता।

स्वरूप जी पुनः दुविधा में फंस गये, पर ऐसे विवेकवान समधी से पुनः सम्बंध जोडने का प्रयास

उन्हे भी उचित लग रहा था। सफलता में उन्हें भी संदेह था पर सोचा एक कोशीश तो करनी ही

चाहिए।

स्वरूप जी, गोपाल जी के यहां पहूँचे, गोपाल जी समझ गये कि शायद पुराना हार मिल चुका

होगा।

स्वरूप जी ने क्षमायाचना करते हुए हार सौपा और अनुनय करने लगे कि जल्दबाजी में हमारा

सोचना गलत था। आप हमारी भूलों को क्षमा कर दिजिए, और उसी सम्बंध को पुनः कायम

किजिए।

गोपाल जी नें कहा देखो स्वरूप जी यह रिश्ता तो अब हो नहीं सकता, आपके घर में शक्की

और जल्दबाजी के संस्कार है जो कभी भी मेरे घर के संस्कारो को प्रभावित कर सकते है।

लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूंगा। मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिये देता हूँ, मेरी

बेटी में वो संस्कार है जो आपके परिवार को भी सुधार देने में सक्षम है। मुझे अपने संस्कारो

पर पूरा भरोसा है। पहले रिश्ते में जहां दो घर बिगडने की सम्भावनाएं थी, वहां यह नया रिश्ता

दोनो घर सुधारने में सक्षम होगा। स्वरूप जी की आंखे ऐसा हितैषी पाकर छल छला आई।

परहित तत्पर ही वास्तविक संस्कार है।

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हंसराज ‘सुज्ञ’

 

निवास : गिरगांव,मुंबई

व्यवसाय : आयात-निर्यात व्यापार

लेखन : शौकिया, (विस्मृत अतृप्त इच्छा पूर्ति के लिए)

बलॉग्स : सुज्ञ : http://shrut-sugya.blogspot.com/


निरामिष : http://niraamish.blogspot.com/

17 comments:

  1. बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये आभार ।

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  2. बहुत बढ़िया लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!

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  3. लघुकथाएं उत्तम हैं ... हालाँकि पहली वाली के सीख से मैं सहमत नहीं हूँ ... कुबुद्धि अन्न में नहीं मन में ही होता है ...

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  4. आभार!!, रश्मि जी

    तीनों बोध-कथाओं,
    ॥जैसा अन्न वैसा मन॥
    ॥लोह सौदागर॥
    ॥संस्कार और हार॥

    को वटवृक्ष की छांव देने के लिए।

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  5. इन्द्रनील जी,

    आपकी असहमति सहज है। किन्तु कई अप्रत्यक्ष वस्तुओं का मन पर प्रभाव सुनिश्चित है।
    बोध-कथा का यही मर्म है।

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  6. सभी कथाएँ अच्छी लगीं । साधु वाली कथा तो नंबर वन है । आजकल बहुत से धर्मगुरुओं द्वारा बलात्कार और हत्या करने और फिर जेल जाने की खबरें सामने आ रही हैं । उनके भ्रष्ट होने के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि ये लोग ब्याज लेकर ग़रीबों का खून चूसने वाले महाजनों के घर का भी खाते पीते हैं और फिर बाद में ये लोग और समाजवासी अपने बाल नोचते हैं ।

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  7. अनवर जमाल साहब,

    सही कहा, शोषको के घर का आहार दुष्परिणाम देता ही है। ठीक उसी तरह हिंसको के घर की खैरात-जकात, पीर-फकीरों धर्मगुरूओं को हिंसक और अन्यायपूर्ण आदेशो-फतवो के लिये उकसाती है। आपनें सटीक मर्म पकडा।

    'लोह सौदागर' भी सटीक है, देख लिजिए…

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  8. वही विचारधारा सफल है जो अपना परिमार्जन करती रहती है
    bahut sundar vichar.baki kathayen bhi bahut prerna denewali hain.

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  9. @ हंसराज सुज्ञ जी ! शुक्रिया , 'लोहे का सौदागर' भी देख लिया ।

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  10. शानदार लघुकथायें।

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  11. तीनों लघुकथा में सीखने को बहुत कुछ है।।
    अच्‍छी प्रस्‍तु‍ति।
    शुभकामनाएं आपको।

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  12. बहुत अच्छी बोध कथाएं| धन्यवाद|

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  13. बहुत सुन्दर कथाएँ |बधाई
    आशा

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  14. सार्थक सन्देश देती तीनों कहानियां ही श्रेष्ठ हैं ...!

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  15. तीनों बोध कथायें सार्थक सन्देश देती है। धन्यवाद इन्हें पढवाने के लिये।

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  16. गोपाल जी नें कहा देखो स्वरूप जी यह रिश्ता तो अब हो नहीं सकता, आपके घर में शक्की

    और जल्दबाजी के संस्कार है जो कभी भी मेरे घर के संस्कारो को प्रभावित कर सकते है।

    लेकिन मैं आपको निराश नहीं करूंगा। मैं अपनी बेटी का रिश्ता आपके बेटे के लिये देता हूँ, मेरी

    बेटी में वो संस्कार है जो आपके परिवार को भी सुधार देने में सक्षम है। मुझे अपने संस्कारो

    पर पूरा भरोसा है। पहले रिश्ते में जहां दो घर बिगडने की सम्भावनाएं थी, वहां यह नया रिश्ता

    दोनो घर सुधारने में सक्षम होगा। स्वरूप जी की आंखे ऐसा हितैषी पाकर छल छला आई।

    परहित तत्पर ही वास्तविक संस्कार है।
    bahut sunder kahan....
    jai baba banaras......

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