एक बूंद भी
आँखों से नहीं निकलता
आँखों के समंदर में रेगिस्तान
बढ़ता चला जाता है
बढ़ता जाता है ......
लहुलुहान अपनी सोच का
कतरा कतरा चुनती हूँ
और बेबस लाचार
सिकुडकर बैठ जाती हूँ .



रश्मि प्रभा



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हूक-सी उठती है...

रोना नहीं आता
बस
हूक-सी
उठती है...
चीखती नहीं
बस
आह निकलती है...

झिंझोड़ दिया हो
जैसे किसी ने
बांह पकड़कर
कितना
चल सकते हो
मेरी जान अकड़कर...

टूटी इमारतें,
मलबों का ढेर,
निर्मल पानी,
निर्मम पानी,
बेबाक पानी,
बेहिसाब पानी...

बहुत सहने के
बाद,
जैसे भड़की धरती...
दर्द दबाए
दबाए
जैसे तड़पी धरती...

रोना नहीं आता
बस
हूक-सी
उठती है...
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फौजिया रियाज़

I am a Radio Jockey and in love with my work but there was something missing so i started this blog to pen down my views...and now everything seems perfect.

17 comments:

  1. बहुत सहने के
    बाद,
    जैसे भड़की धरती...
    दर्द दबाए
    दबाए
    जैसे तड़पी धरती..

    bahut sundar !

    लहुलुहान अपनी सोच का
    कतरा कतरा चुनती हूँ
    और बेबस लाचार
    सिकुडकर बैठ जाती हूँ .

    kya bat hai !

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  2. बहुत ही गहरे भावों के साथ बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  3. कोमल भावों से सजी रचना!!
    एक बेहतरीन प्रस्तुति

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  4. जापान की ताजा तस्वीरें देख कर कुछ ऐसे ही ख्याल उठे थे ...
    सुन्दर भावाभिव्यक्ति !

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  5. बेहद उम्दा चित्रण्।

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  6. टूटी इमारतें,
    मलबों का ढेर,
    निर्मल पानी,
    निर्मम पानी,
    बेबाक पानी,
    बेहिसाब पानी

    वेदना से परे व्यक्त होती वेदना के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के बाँध में निहित सन्देश भी बड़ी सहजता से बह रहा है. अत्युत्तम परिपूर्ण रचना के लिए बधाई. साधुवाद !!

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  7. बेहतरीन कविता ! कम उम्र में ही इतनी सुन्दर कविता लिखने की प्रतिभा जिसमें हो वो क्या कुछ नहीं कर सकती है ...

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  8. टूटी इमारतें,
    मलबों का ढेर,
    निर्मल पानी,
    निर्मम पानी,
    बेबाक पानी,
    बेहिसाब पानी...

    इस त्रासदी को देख सच ही हूक सी उठती है

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  9. आँखों के समंदर में रेगिस्तान
    बढ़ता चला जाता है
    bahut achcha likhi hain...,man ke layak hai jaise.

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  10. निर्मल पानी,
    निर्मम पानी,
    बेबाक पानी,
    बेहिसाब पानी...
    alag-alag prakar ke pani.....se likhi hui behad achchi lagi.

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  11. मानवता का अहसास करती सुन्दर रचना |

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  12. @ फ़ौज़िया,
    अश्क गर धोखा दे भी दें तो भी,दर्द का धुमडता बादल और संवेदनाओं की कुछ छीटे भी काफ़ी हैं अहसास की ज़मीन को मस्सरर्त की हरियाली उगाने के लिये!

    इस हूक को ज़िन्दा रखिये, मानवता की पहचान है, ये सोच!

    सुन्दर रचना!

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  13. एक बूंद भी
    आँखों से नहीं निकलता
    आँखों के समंदर में रेगिस्तान
    बढ़ता चला जाता है
    बढ़ता जाता है ......
    aakhe samandar aur registan wahhhh bahot badhiya..

    बहुत सहने के
    बाद,
    जैसे भड़की धरती...
    दर्द दबाए
    दबाए
    जैसे तड़पी धरती...

    रोना नहीं आता
    बस
    हूक-सी
    उठती है.

    bahit achche..

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  14. रोना नहीं आता
    बस
    हूक-सी
    उठती है.
    सुंदर सन्देश देती संवेदनशील बढ़िया कविता.

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  15. रोना नहीं आता
    बस
    हूक-सी
    उठती है...such me in panktiyo ko pad kar dil me ek huk si uthti hai... bhut bhaavpur panktiya hai...

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  16. अन्तः में ख़ामोश हूक सी उठती रचना, बधाई फौजिया जी.

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