दहेज़ के अंधे को दहेज़ दिख ही जाता है....
रश्मि प्रभा
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रश्मि प्रभा
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कोई बात जरूर होगी
-- करण समस्तीपुरी (केशव कर्ण)
शर्माजी घर में घुसते ही निढाल होकर सोफे पर पसर गए। मिसेज शर्मा के सवालों की श्रृंखला जारी थी। कैसी रही बरात ? रामदीन भैय्या कैसे हैं ? उन्होंने हमारे नहीं आने पर शिकायत को किया होगा ? नयी बहू कैसी है ? रामदीन का एकलौता बेटा है न... ? शादी तो खूब धूम-धाम से हुई होगी ?
थके-थके से शर्माजी ने झल्ला कर कहा, "ख़ाक धूम-धाम से होगी.... ! उस से ज्यादा धूम-धाम से तो अपने मोहल्ले के धनेसर बाबू का श्राद्ध हुआ था।"
मिसेज शर्मा, "शिव-शिव... ऐसे क्यूँ बोल रहे हैं.... सब-कुछ अच्छे से हुआ न... ? क्या सब लिया है रामदीन ने ?"
शर्माजी, "कुछ नहीं।"
मिसेज शर्मा, "क्या बात करते हैं ? उनका बेटा करता क्या है ?"
शर्माजी, "सुना है किसी बहु-राष्ट्रीय कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर है।"
मिसेज शर्मा आश्चर्य से आँखे नचाते हुए बोली, "फिर भी कुछ नहीं लिया...?"
शर्माजी, "लेने के लिए अक्ल होनी चाहिए। तुम तो जानती ही हो, रामदीन कैसा पोंगापंथी है....! अक्ल का दुश्मन एम ए पास कर के आजतक वही किरानीगिरी कर रहा है। आखिर सोना का जूता पहनने के लिए चांदी के जूते मारने पड़ते हैं। आदर्शवादी.... रिश्वत नहीं लेता-देता है। दहेज़ से परहेज है..... पता नहीं और कितने ऊंचे-ऊंचे उसूल हैं.... !"
शर्माजी, "ठीक-ठाक है। वह भी उसी शहर में नौकरी करती है।"
सहसा मिसेज शर्मा की आँखें चमक उठी, "तो ये कहिये न.... ! वही तो मैं कहूं। कोई बात जरूर होगी वरना इतने पढ़े-लिखे और अच्छे कैरियर वाले लड़के की शादी फ्री में क्यों करेंगे
Keshav.Struggling to live and living to struggle http://manojiofs.blogspot.com/
सच है सबकी अपनी अपनी व्याख्या है।
ReplyDeleteसच है सबकी अपनी अपनी व्याख्या है।
ReplyDeleteनैतिकताओं की बदलती परिभाषा, बदलते प्रस्थापन
ReplyDeleteशानदार व्यंग्य है।
अपना अपना नजरिया ...लोगों को अच्छाई में भी खोट नज़र आता है ..
ReplyDeleteइसी सोच ने तो मार रखा है।
ReplyDeleteअजी! क्या सोच अपनी और पराई जिस जिसकी ऐसी सोच लानत उस पर!
ReplyDeleteअच्छा व्यंग! दहेज लोलुपों पर!
बेहतरीन ...।
ReplyDeleteअच्छी सोच को सबके लिए सकारात्मक लेना संभव नहीं है !
ReplyDeleteवाह रे अजब-गजब दुनिया...
ReplyDeleteक्या होगा???
सटीक एवं सार्थक व्यंग...
hmm... तो ये बात थी ... तभी तो कहूँ ... यही हाल है जी सब तरफ
ReplyDeleteबहुत सटीक और सार्थक व्यंग..
ReplyDeleteबहुत चुतेला व्यंग |
ReplyDeleteबधाई
आशा
आदर्शो की परिवर्तित व्याख्या!! सटीक व्यंग्य!!
ReplyDeleteनिरामिष: शाकाहार : दयालु मानसिकता प्रेरक
मजेदार । गुझिया अनरसे जैसा ।
ReplyDeleteरश्मिप्रभा जी आपको होली की शुभकामनायें ।
कृपया इसी टिप्पणी के प्रोफ़ायल से मेरा ब्लाग
सत्यकीखोज देखें ।
सटीक एवं सार्थक व्यंग|धन्यवाद|
ReplyDeletebahut sahi kaha hai...aaj humare tathakathit sabhya samaj ki yehi soch hai..achhi baat me bhi swarth dhundh hi lete hain log
ReplyDeleteनई मजलिसें , नई बातें
ReplyDeleteऔर सभी दिलचस्प .
rashmi ji
ReplyDeleteholi mubarak ,
agrani soch ke sath sundar shilp
marmik rachana ,
sadhvad .
समाज का चेहरा ऐसा ही है। बहुत सुन्दर। करण जी की कहानियाँ खास कर देसिल ब्यना की बडी प्रशंसक हूँ। होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteदुःख इस बात कि है कि ऐसी सोच आज भी हमारे समाज में है ... यह लघुकथा कोई बीते ज़माने की बात नहीं कर रहा है ...
ReplyDeleteये ही सोच है हमारी, अगर दहेज़ नहीं लिया तो जरूर कोई कमी होगी. अगर ले लिया तो फिर लालची हैं. नौकरी वाली बहू है तो हर महीने कि इतनी रकम मिलेगी और घरेलु है तो फिर लुट गए. इंसान किसी तरह भी तो नहीं जीने देता है. अपनी सोच वह बदले तो बदले कैसे?
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