कई चेहरे घुटे हुए
मौत से पहले मृत नज़र आते हैं
तुम आंसू न बहाओ
श्रद्धांजली न दो
पर बेबस ज़िन्दगी को जीने का दंड न दो ...
अरुणा शानबाग के लिये
मौसम बदलते रहे तुम्हारे इर्द-गिर्द
हवाएँ ठंडी से गर्म फिर ठंडी हो गईं
बच्चे जवान होकर पिता बन गए
पौधे वृक्ष बन बैठे
पुण्य फलित हुए
पाप दण्डित हुए
सिर्फ तुम्हीं हो अरुणा
जो नहीं बदली
सैंतीस साल तुमने प्रतीक्षा को दिये
मृत्यु की
या जीवन की
हम भी नहीं समझ पाए
सोहन सात साल की सजा पाते हैं
अरुणा सैंतीस साल
(और आगे न जाने कितनी )
ये लेखा जोखा किसके हाथों है भगवान
करुणा विगलित हैं हम
हमारे स्वर
वाक् आडम्बर में शीर्ष ये जमात
दुनिया की सबसे सभ्य कौम है
न जाने कितने सोहन करवट बदलते हैं
इन अँधेरी गुफाओं में
न जाने कितनी अरुणा
सिसक भी नहीं पाती
सैन्तीसों साल
इस प्रकरण का पटाक्षेप नहीं है ये
कुछ प्रश्न तैरते हैं मंच पर
फिर दम तोड़ देते हैं दर्शकों की भीड़ में
तालियों के शोर में
कुछ पात्रों के आँसू सुने भी नहीं जाते
चैन सिंह शेखावत
तुम आंसू न बहाओ
ReplyDeleteश्रद्धांजली न दो
पर बेबस ज़िन्दगी को जीने का दंड न दो ..
बहुत ही सुन्दर एंव भावमय करते शब्द ।
अरूणा मन वचन काय से स्थितप्रज्ञ है।
ReplyDeleteइसीलिये कि न्याय भी स्थितप्रज्ञ है।
और मानवीय संवेदनाएं तटस्थ है, स्थितप्रज्ञ है।
sharmindaa hai hum
ReplyDeleteह्रदय विदीर्ण कर दिया आपकी इस रचना ने शेखावत जी………उस दर्द को बखूबी उकेरा है।
ReplyDeletedard ka aabhas karati hui....udasi ko jiti hui...
ReplyDeleteकुछ प्रश्न तैरते हैं मंच पर
ReplyDeleteफिर दम तोड़ देते हैं दर्शकों की भीड़ में
तालियों के शोर में
कुछ पात्रों के आँसू सुने भी नहीं जाते
सच कहा। शानबाग के आँसू शायद मौत के इन्ताजार मे सूख चुके हैं किसे दिखेंगे आवाज़ खो चुकी है मौन की भाशा कौन समझेगा\ शेखावत जी की रचना बहुत मार्मिक है। धन्यवाद।
अरुणा शानबाग न कविता है , न कोई रंग है... आपके लिए एक प्रश्न है , जिसे आंसुओं में न बहायें , अपने सशक्त विचार दें
ReplyDeleteisliye to usne "gujarish" ki hai Euthensia ki..!
ReplyDeletebahut pyari dil ko chhune wali rachna..!
मार्मिक और कई प्रश्न उठती कविता..
ReplyDeleteआदरणीय रश्मि जी
ReplyDeleteसादर अभिवादन
वटवृक्ष में मेरी कविता प्रकाशित करने के लिये आपका हार्दिक आभार.
अरूणा जी, किसी कहानी की पात्र नहीं हैं बल्कि जीवन और मृत्यु की लड़ाई की
ReplyDeleteएक तस्वीर हैं सैंतीस सालों से जीवन शून्य है भावनाएं शून्य हैं और इन सबसे
हार कर जब इनके लिये न्याय के तौर पर ऐच्छिक मृत्यु की मांग की गई तो
उसे भी ठुकरा दिया गया ...ऐसा अन्याय क्यों इंसाफ की चाहत में पुकार लगाने
पर यह नाइंसाफी क्यों ...? क्या है इस जीवन में ? क्या मिलेगा यदि वो क्षणांश को भी होश में आ गई तो ? ऐसे ही कई सवालों को जन्म देती है यह रचना प्रस्तुति ...जिसका जवाब देने के लिये हम सबके विचारों की इस कड़ी को आगे बढ़ाया है रश्मि दी ने वटवृक्ष के माध्यम से ...जिनका बहुत-बहुत आभार ।।
मनुष्यता हाशिये पर आ चुकी है !
ReplyDeleteहम सभ्य होने का बस नाटक करते हैं !
तुम आंसू न बहाओ
ReplyDeleteश्रद्धांजली न दो
पर बेबस ज़िन्दगी को जीने का दंड न दो ..
मार्मिक ... कुछ शब्दों में बहुत गहरी बात .... पर कितनी सच्ची ...
इस विषय से सम्बंधित मैंने एक रचना पढ़ी थी ..उसकी अंतिम पंक्तियाँ यहाँ देना चाहूंगी ..साथ ही उस ब्लॉग का लिंक भी ...ऐसी घटनाएं इतिहास के गर्त में चली जाती हैं ...और हम अफ़सोस करते हुए शायद सब कुछ भूल जाते हैं ...
ReplyDeleteलेकिन
बदकिस्मत एक बलात्कार पीड़िता नहीं होती हैं
बदकिस्मत हैं वो समाज जहां बलात्कार होता हैं
बड़ा बदकिस्मत हैं
ये भारत का समाज
जो बार बार संस्कार कि दुहाई देकर
असंस्कारी ही बना रहता हैं
लिंक --
http://mypoemsmyemotions.blogspot.com/2011/03/blog-post_12.html
एक अन्य ब्लॉग पर ---
ReplyDeleteउदाहरण बनी पड़ी हूँ ,
सँजोओगे कब तक ,
मानवी देह का उपहास ?
या नारीत्व ही एक शाप !
सिमटी-लिपटी ममी हूँ ,
या ज़िन्दा लाश ?
http://yatra-1.blogspot.com/2011/03/blog-post_11.html
sangeeta ji shukriyaa meri kavita kaa link yahaan jodnae kae liyae
ReplyDeleteबड़ा बदकिस्मत हैं
ये भारत का समाज
जो बार बार संस्कार कि दुहाई देकर
असंस्कारी ही बना रहता हैं
अरुणा की त्रासदी आज एक यक्ष प्रश्न बनकर खड़ी है क्योंकि हमारी प्रतिकार की क्षमता नगण्य होती जा रही है.हम आज भी सदियों पुरानी न्याय-व्यस्था में अपनी आस्था लगाये बैठे हैं,यह जानते हुए भी कि वहां से कुछ नहीं मिलेगा. परिवर्तन जहाँ गाली सी लगे,अच्छे संस्कार जहाँ दम तोड़ते नजर आयें वहां किस सुधार की आस में बैठे हैं हमलोग
ReplyDeleteसमझ नहीं आता . सुन्दर भावाभिव्यक्ति.
जीवन और मृत्यु...साथ साथ चलते है ये तो जाना था ....पर जीने के लिए मृत्यु..शैय्या पर... शून्य जीवन को नीरीह आँखों से देखना और जीना कितना त्रासद है ...
ReplyDeleteएक सशक्त कविता |सुन्दर भाव
ReplyDeleteबधाई
आशा
तुम आंसू न बहाओ
ReplyDeleteश्रद्धांजली न दो
पर बेबस ज़िन्दगी को जीने का दंड न दो ...
दोनों ही रचनाएँ बहुत मार्मिक और अंतस को उद्वेलित करने वाली..
behad samvedansheel.....
ReplyDeleteहम हैं कौन इन मसलों(ज़िन्दगी और मौत के) में टाँग डालने वाले! जापान में कितने ही स्वथय और अशक्त मर गये,किसी ने अर्जी डाली थी क्या उनके ’मरने’ या ’ज़िन्दा’ रहने की!
ReplyDeleteजीवन है, चलने दीजिये
!"बुरा"/"अच्छा" Define मत करिये! अगर कुछ कर सकते हैं तो जो बुरा लगे उसे करिये मत, और कोशिश करिये कि होने भी न दें!
दोनों पलड़े मानवीय संवेदना को तौल रहे हैं...कोई ऊंचा या नीचा नज़र नहीं आ रहा है...
ReplyDeleteरचना बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है.
aruna shanbaag ko swechha mrityu diye jaane ke sawaal par bawaal ho raha hai ... jabki mujhe lagta hain pure desh bhar mein charcha hona chahiye ki us balatkari ko faansi diya jana chahiye ya nahi ... main manta hun ki use pakda jaaye .. wo jahan bhi ho aur use turant mrityudand de diya jaay ...
ReplyDeleteमंजुश्री के शब्दों में -
ReplyDeleteन जाने किन भयानक अंधेरों में घिरकर एक सुबह के इंतज़ार में अरुणा तुमने सैंतीस साल अपने सवालों के जवाब के लिए गुज़ारे , पर नहीं आई वो सुबह . तो तुमने चिरनिद्रा की मौन गुहार लगाई .
न्याय की दोहरी नीति और समाज की पंगुता शर्मनाक है ! अरुणा , मैं तुम्हारे दर्द में हूँ पर चुप और लाचार हूँ ! तो अपनी सम्पूर्ण संवेदना के साथ धरती हूँ अपना हाथ तुम्हारे माथे पर , शायद यह तुम्हारी जलन में एक बूंद शीतलता हो !शेखावत जी , आपकी अभिव्यक्ति ने मर्म को गहरे छुआ - धन्यवाद
कुछ पाने की उम्र में ही अरुणा शानबाग ने अपने नाम का रंगीन अर्थ खो दिया . सोहनलाल नामक दुर्दांत दस्यू ने उसकी ज़िन्दगी से सबकुछ छिनकर ज़िन्दगी और मौत के दो पातों के बीच निर्ममता से डाल दिया ! क्रम कभी रुकता नहीं - सुबह उतरती रही, शाम गहराती गई , मौसम का चक्र चलता रहा पर अरुणा 37 वर्षों से अपनी चलती साँसों के उतार-चढ़ाव में फंसी एक मौन सूनापन झेलती रही . शरीर के सारे अंग निष्क्रिय हो चुके हैं . घरवालों ने इसे नियति मान उसका साथ छोड़ दिया यानि भूल गए कि कोई अरुणा शानबाग थी .
ReplyDeleteआज क्या संगत है, क्या असंगत की तुला पर इस बदनसीब की साँसें झूल रही हैं . वकील शुभांगी टुल्ली ने यूथनेशिया के लिए याचिका दायर की थी जो खारिज हो गई ! ...... सोचकर सिहरन होती है , कैसे किसी की चलती साँसों को ख़त्म किया जाये पर बात यहाँ साँसों की नहीं मुक्ति की है . काश ! हम कोई ऐसा मुक्ति राग गाते , जिसमें अरुणा शानबाग को नींद आ जाती
अरुणा का जीवन सभी के लिए एक प्रश्न चिन्ह है| अपराधी को दंड नहीं मिलता और भुक्तभोगी को सजा मिलती, जिसके पास जिंदगी नहीं लेकिन ज़िंदा रखना है| अरुणा तो मर चुकी थी उसी दिन जिस दिन उसकी आत्मा और शरीर की ह्त्या की गई, अब न जाने क्यों ३७ साल से उसे और उसके घर वालों को प्रताड़ित किया जा रहा उसकी साँसों को चलाकर| क्यों नहीं बदलता हमारा कानून?
ReplyDeleteउद्वेलित करती मार्मिक रचना
ReplyDeleteहमारी सभ्यता, न्याय प्रक्रिया और न जाने कितने सामाजिक सन्दर्भ कटघरे में हैं.
अरुणा शानबाग की जिन्दगी तो पूरे मानव समाज के लिए एक त्रासदी है. अपने आप में एक मिसाल और हम उसके साथ न न्याय कर पाए हैं और न ही कर पायेंगे. उसके कष्टों की अनुभूति अगर किसी को होती तो उसको दया मृत्यु की मांग को मान लिया गया होता.
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