एक अरसा हुआ है उस चमन से गुज़रे हुए, 
रात अरसे से हर एक शाम के बाद आती है,
जिस जगह हमने गुज़ारा था वो बचपन अपना,
आज भी हमको उसी शहर की याद आती है,

वो हज़रतगंज कि जिसकी हसीन सड़कों पर,
फिरते थे मारे मारे कभी हम दिन भर,
अमीनाबाद वो कि जिसका जिक्र छिड़ते ही,
झूम उठता था हमारे घरों का हर पत्थर,

वो गोमती नगर वो अलीगंज नगर इन्दिरा का,
वो सड़के आर डी एस ओ की जहां था मैं खेला,
वो बासमण्डी, वो राजाजीपुरम, वो खदरा,
और नक्कखास में इतवार का बड़ा मेला,

वो चारबाग वहां जिसका नाम सुनते ही,
किसी के आने की आहट सुनाई देती थी,
वहीं पर पास ही तो थी बड़ी ऊंची बिल्डिंग,
जहां से शहर की रौनक दिखाई देती थी,

वो डालीगंज के आगे बनी पुरानी सड़क,
जहां की रातें सितारों में डूब जाती थीं,
वो भूतनाथ का बाज़ार जहां सुनते हैं,
नई शामें थी नई आग खूब आती थी,

वो श्यामलाल लेन जिस पर एक पुराना घर,
अचार वाली गली की महक का वो मंज़र ,
वो र्बमा स्टाप कि जिससे ज़रा सा आगे था,
किसी नादान महल की मज़ार का पत्थर,

ईमामबाड़े से लगती अज़ीम वो मस्जिद,
जहां अल्लाह से हम सीधे बात करते थे,
वो घड़ी वाली मीनार, रूमी दरवाजा,
बैठकर जिस पे वहां दिन को रात करते थे,

वो रेज़ीडेसी कि जिसकी बड़ी दीवारों पर,
निशान आज भी कायम है उस जवानी के,
गदर का नाम लेकर जो उठी थी मेरठ से,
ये हैं पन्ने उसी भूली हुई कहानी के,

वो के डी सिंह जी के नाम का बड़ा मैदान,
जहां पर बड़े लोग खेलने को जाते थे,
उसी के पीछे ही तो बना था हनुमान सेतु,
जहां से धरती और आकाश नज़र आते थे,

वो घाट गोमती का जिसकी गोद में आकर,
किसी के डूबते दिन को सलाम करते थे,
वो नदी जो सदा खामोश बहती रहती थी,
सब अपना अपना वहां इंतजाम करते थे,

चिकन का कुर्ता हो या हो कबाब टुण्डे का,
प्रकाश की कुल्फी बाजपेयी की पूरी,
हम अपनी सायकिल पर पूरी नाप लेते थे,
शहर के इस तरफ से उस तरफ की दूरी,

हया जो लड़कियों में आज तलक कायम है,
नशा जो आज भी सड़कों पे बहता रहता है,
वो खुशबुएं अलग अलग तरह की उड़ती है,
वो लहजा आम को जो खास कहता रहता है,

शहर के एक तरफ देखो तो यह लगता है,
सियासतों ने अपना हाथ बढ़ा रखा है,
नज़र को दूजी ओर करते हैं तो पाते हैं,
प्यार ने प्यार को परवान चढ़ा रखा है,

वो नज़ाकत वो नफासत वो तकल्लुफ यारो,
जो किताबों में कही तुमने भी पढ़ा होगा,
वहां की गलियों में सब आज भी मुहाफिज है,
वक्त भी 'पहले आप' कहके ही बढ़ा होगा,

कोई कविता कोई गज़ल या कोई गीत कभी,
बयान उस शहर का हर रंग नहीं कर सकता,
वहां की बात ही कुछ और है चलो छोड़ो,
दिलों से दिल के लिए जंग नहीं कर सकता,

वो लखनऊ है जहां अब भी चांद और सूरज,
हर एक राह को झुक कर सलाम करते हैं,
वहां के ढंग और ज़बान सब निराले हैं,
हम अपना किस्सा यही पर तमाम करते हैं,

मगर इतनी सी बात हमको और बतानी है,
कभी सुबह तो कभी शाम के बाद आती है,
जिस जगह हमने गुज़ारा था वो बचपन अपना,
आज भी हमको उसी शहर की याद आती है।



अभिनव शुक्ल

कवि अभिनव शुक्ल एक साफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर के पद पर कार्यरत हैं।उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा मेरठ, नौगांव (असम) एवं लखनऊ से प्राप्त की तथा इंजीनियरिंग की पढ़ाई बरेली से पूरी करी। इसी बीच उनकी कविता यात्रा प्रारंभ हुई और आगे बढ़ी।लखनऊ के प्रतिष्ठित लक्ष्मण मेले में आयोजित कवि सम्मेलन में काव्य पाठ से राष्ट्रीय मानचित्र पर अभिनव का पदार्पण हुआ। अमेरिका के हार्वड, प्रिंसटन एवं कनेक्टिकट विश्वविद्यालयों के सभागारों में कविताओं का पाठ कर चुके अभिनव कुछ समय तक दक्षिण से प्रकाशित होने वाले दैनिक में नियमित व्यंग्य स्तंभकार भी रहे हैं।प्रकाशित कृतियाँ- 'अभिनव अनुभूतियॉं', 'कोहरे की परछाईयॉं' तथा 'तुम हँसो मैं गाऊँ'

ई मेलः shukla_abhinav@yahoo.com 

9 comments:

  1. मगर इतनी सी बात हमको और बतानी है,
    कभी सुबह तो कभी शाम के बाद आती है,
    जिस जगह हमने गुज़ारा था वो बचपन अपना,
    आज भी हमको उसी शहर की याद आती है।
    वाह ...बहुत खूब ..बेहतरीन भावसंयोजन लिए उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति।

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  2. शान-ए-अवध का अति सुन्दर वर्णन!...बहुत बढ़िया लगा...आभार!

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  3. ईमामबाड़े से लगती अज़ीम वो मस्जिद,
    जहां अल्लाह से हम सीधे बात करते थे,
    वो घड़ी वाली मीनार, रूमी दरवाजा,............. *भूल - भुलैया भी*
    जिस जगह हमने गुज़ारा था वो बचपन अपना ....
    कुछ यादें जीने का सबब बन जातें हैं .... !!

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  4. पूरा लखनऊ जीवंत कर दिया...आपकी कविता ने...हार्दिक बधाइयाँ...

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  5. अमाँ ये क्या तरीका, तमाम लखनऊ और हम नहीं,
    लखनऊ है तो हम हैं लखनऊ नहीं तो हम नहीं!

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  6. यादों के साये लफ़्जों में पिरोये हुए ...और खूब पिरोये हुए ..........बधाई अभिनव जी !

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  7. दिल से उपजी सुंदर रचना.वाह, कमाल है.

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