तेतरी ने फूल गढ़ा है
अपने घर के बाहर
अपनी मिट्टी की दीवार पर
फूल बहुत सुंदर है
बहुत सच्चा लगता है
गली से आते-जाते लोगों को
वह बहुत अच्छा लगता है
पर कैसी भी हवा चले
तेतरी के बिन दरवाजे घर में
फूल की सुगन्ध कोई, कभी नहीं आती
घर के भीतर तो
कालिख भरा धुआँ फैला रहता है
जो तेतरी की आँखों में पानी
भरता रहता है
यह कैसा मज़ाक़ है
कि तेतरी के हाथ से
बने फूल
हँसते हैं
और तेतरी के हाथ
हँसी को तरसते हैं !
हरे प्रकाश उपाध्याय
हरे प्रकाश उपाध्याय हिन्दी की नयी पीढ़ी के संवेदनशील एवं सजग कवि हैं। ५ जनवरी १९८१ को भोजपुर बिहार के गाँव 'बैसाडीह' में जन्मे हरे प्रकाश ने जैसे-तैसे बी॰ए॰ की पढ़ाई पूरी की है। वर्तमान में लखनऊ से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज एक्टिविस्ट में फीचर संपादक के पद पर कार्यरत हैं। 'अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार' से सम्मानित हैं।
संवेदनशील कविता...आभार
ReplyDeleteतेतरी के हाथ भले हँसी को तरसते हों पर उसका मन जरूर हँसता होगा वरना इतना सुंदर फूल कैसे बनाती वह दीवार पर !
ReplyDeleteमानवीय संवेदनाओं की धरातल पर उपजी हुयी एक मार्मिक किन्तु सामाजिक सरोकार से लबरेज उत्कृष्ट कविता के लिए आपको बधाइयाँ हरे प्रकाश जी ।
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता, कवि को दिल से बधाई ।
ReplyDeleteसुंदर और सारगर्भित कविता, अच्छी लगी ।
ReplyDeleteयह कैसा मज़ाक़ है
ReplyDeleteकि तेतरी के हाथ से
बने फूल
हँसते हैं
और तेतरी के हाथ
हँसी को तरसते हैं !
ओह मार्मिक
अंतर को छू गयी आपकी ये रचना,
ReplyDeleteशुभकामनाओं सहित आभार !
संवेदनशील कविता...आभार
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील रचना
ReplyDeletebhawbhini.....
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