लताओं सी नाज़ुक यादें जब गहराने लगती हैं
फि़ज़ां की खुशबू कुछ जानी पहचानी सी लगती है ।
ज़माने की हमदर्दी जब शूल बन जाती है
वेदना ,शब्द बन पन्नों पर उतर जाती है ।
अल्फाज़ जो लब पर आते नहीं हैं
सिसकियों से नाता जोड़ लेते हैं ।
उम्मीदों के पुल जब ध्वस्त हो जाते हैं
अश्क गले से घूँट बनकर उतरते हैं ।
नदी का दो पाट बनना, जी को डराते हैं
बूँदों को संजोकर चलो, मेघ बन जाते हैं ।
मेरी ख़ामोशी में टिकी है सब्र की नींव
नाज़ुक है ,झेल नहीं सकती आवेश तीव्र ।
चाहे आदेश समझो या मान रख लो अर्ज़ का
तुमसे ही बँधी साँस तुम इलाज मेरे मर्ज़ का ।
दरवाज़े पर मेरे धीमे से दे दो दस्तक
तुम हो नज़्म मेरी, गूँज उठे सुर सप्तक ।
कविता विकास
ईमेल - kavitavikas28@gmail.com
ज़माने की हमदर्दी जब शूल बन जाती है
ReplyDeleteअल्फाज़ जो लब पर आते नहीं हैं
अश्क गले से घूँट बनकर उतरते हैं ।
दिल की गहराई से निकल ,दिल को छू गई .... !!
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteचाहे आदेश समझो या मान रख लो अर्ज़ का..bahut khoob...
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर नज़्म, बधाइयाँ !
ReplyDeleteप्रेम की बेहतर अभिव्यक्ति है यह नज़्म ....बढ़िया है ।
ReplyDeleteदरवाज़े पर मेरे धीमे से दे दो दस्तक
ReplyDeleteतुम हो नज़्म मेरी, गूँज उठे सुर सप्तक ।
ये दस्तक जारी रहे
बहुत खूब
thank you all .your words always inspire me .abhar
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