लताओं सी नाज़ुक यादें जब गहराने लगती हैं
फि़ज़ां की खुशबू कुछ जानी पहचानी सी लगती है ।
ज़माने की हमदर्दी जब शूल बन जाती है
वेदना ,शब्द बन पन्नों पर उतर जाती है ।
अल्फाज़ जो लब पर आते नहीं हैं
सिसकियों से नाता जोड़ लेते हैं ।
उम्मीदों के पुल जब ध्वस्त हो जाते हैं
अश्क गले से घूँट बनकर उतरते हैं ।
नदी का दो पाट बनना, जी को  डराते हैं
बूँदों को संजोकर चलो, मेघ बन जाते हैं  ।
मेरी ख़ामोशी में टिकी है सब्र की नींव
नाज़ुक है ,झेल नहीं सकती आवेश तीव्र ।
चाहे आदेश समझो या मान रख लो अर्ज़ का
तुमसे ही बँधी साँस  तुम इलाज मेरे मर्ज़ का ।
दरवाज़े पर मेरे धीमे से दे दो दस्तक
तुम हो नज़्म मेरी, गूँज उठे सुर सप्तक ।





कविता विकास

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7 comments:

  1. ज़माने की हमदर्दी जब शूल बन जाती है
    अल्फाज़ जो लब पर आते नहीं हैं
    अश्क गले से घूँट बनकर उतरते हैं ।
    दिल की गहराई से निकल ,दिल को छू गई .... !!

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  2. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति।

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  3. चाहे आदेश समझो या मान रख लो अर्ज़ का..bahut khoob...

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  4. बहुत ही सुंदर नज़्म, बधाइयाँ !

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  5. प्रेम की बेहतर अभिव्यक्ति है यह नज़्म ....बढ़िया है ।

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  6. दरवाज़े पर मेरे धीमे से दे दो दस्तक
    तुम हो नज़्म मेरी, गूँज उठे सुर सप्तक ।

    ये दस्तक जारी रहे
    बहुत खूब

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  7. thank you all .your words always inspire me .abhar

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