(एक)
मिलके चलना बहुत ज़रूरी है
अब सँभलना बहुत ज़रूरी है
गुत्थियाँ होगईं जटिल कितनी
हल निकलना बहुत ज़रूरी है
आग बरसा रहा है सूरज अब
दिन का ढलना बहुत ज़रूरी है
जड़ न हो जाएँ चाहतें अपनी
हिम पिघलना बहुत ज़रूरी है
हम निशाने पे आ गए उसके
रुख़ बदलना बहुत ज़रूरी है
है अँधेरा तो प्यार का दीपक
मन में जलना बहुत ज़रूरी है
(दो)
क्या होगा अंजाम, न पूछ
सुबह से मेरी शाम, न पूछ
आगंतुक का स्वागत कर
क्यों आया है काम न पूछ
मेरे भीतर झाँक के देख
मुझसे मेरा नाम न पूछ
पहुँच से तेरी बाहर हैं
इन चीज़ों के दाम न पूछ
रीझ रहा है शोहरत पर
कितना हूँ बदनाम न पूछ
0 मनोज अबोध
जन्म: 30 अप्रैल 1962,झालू(बिजनौर)उत्तर प्रदेश /शिक्षा: बीएससी,एमए,पत्रकारिता स्नातकोत्तर,आयुर्वेद-रत्न,डिप्लोमा-इन-होम्योपैथी/ प्रकाशन: दो ग़ज़ल संकलन-‘गुलमुहर की छांव में(2000),मेरे भीतर महक रहा है(2012),दोहा संग्रह-यादों का मकरन्द(प्रकाशनाधीन)
जन्म: 30 अप्रैल 1962,झालू(बिजनौर)उत्तर प्रदेश /शिक्षा: बीएससी,एमए,पत्रकारिता स्नातकोत्तर,आयुर्वेद-रत्न,डिप्लोमा-इन-होम्योपैथी/ प्रकाशन: दो ग़ज़ल संकलन-‘गुलमुहर की छांव में(2000),मेरे भीतर महक रहा है(2012),दोहा संग्रह-यादों का मकरन्द(प्रकाशनाधीन)
e-mail: manojabodh@gmail.com
हम निशाने पे आ गए उसके
ReplyDeleteरुख़ बदलना बहुत ज़रूरी है
(दो)
आगंतुक का स्वागत कर
क्यों आया है काम न पूछ
मेरे भीतर झाँक के देख
मुझसे मेरा नाम न पूछ
पहुँच से तेरी बाहर हैं
इन चीज़ों के दाम न पूछ
behad acche aashaar manoj ji...
आग बरसा रहा है सूरज अब
ReplyDeleteदिन का ढलना बहुत ज़रूरी है
जड़ न हो जाएँ चाहतें अपनी
हिम पिघलना बहुत ज़रूरी है
wah wah wah ,bahut hi badiya
आखिर असली जरुरतमंद कौन है
भगवन जो खा नही सकते या वो जिनके पास खाने को नही है
एक नज़र हमारे ब्लॉग पर भी
http://blondmedia.blogspot.in/2012/05/blog-post_16.html
सुन्दर गजलें...
ReplyDeleteसादर आभार.
सुन्दर गजलें
ReplyDeleteखूबसूरत गज़लें...आनंद आ गया...
ReplyDeleteBahut hi acche ghazal hain
ReplyDeletemanoj ji ko subhkaamnaayen
खूबसूरत गज़लें..
ReplyDeleteजड़ न हो जाएँ चाहतें अपनी
ReplyDeleteहिम पिघलना बहुत ज़रूरी है.....very nice...
रश्मि प्रभा जी सहित सभी मित्र साहित्यकार/कवि हृदय पाठको एवं चिट्ठाकारों का हार्दिक आभार
ReplyDelete