घुटन भी एक चेतना है
जो बन्द कमरों में अहर्निश जलती है
धुँआ गहराता जाए तो चीखना ज़रूरी है
अपने गुम हुए अस्तित्व के एहसास के लिए ....
रश्मि प्रभा
===========================================================
अहर्निश
मैं जानता हूँ
कुछ फर्क नहीं पड़ता
मेरे चीखने से, चिल्लाने से,
जीवन के शतरंज पर
शब्दों की गोटियाँ चराने से।
कुछ भी तो फर्क नहीं पड़ता,
जलती क्षुधाओं को
बेबस आँसुओं को
कलपते तन-मन को
शब्दों की चाशनी में पकाने से।
मैं यह भी जानता हूँ कि
जो उबलता है अन्दर
तप्त लावे की तरह,
सतह पर आते ही
हो जाता है शीत युक्त...
जम जाता है हिम खण्डों सा,
स्पर्श मात्र से ही
ज़माने की ठंडी हवाओं के।
फिर भी
उस उबाल को
उस उफान को
रोकता नहीं
क्योंकि
कम से कम
इतना अहसास तो होता है कि
कड़ाह के नीचे आंच है
और शायद इतनी उम्मीद कि
कभी तो, कुछ तो पिघलेगा।
पल भर के लिये ही सही
मन की सतह क्षैतिज तो हो जाती है।
प्रताप नारायण सिंह
बहुत बढ़िया प्रस्तुति |
ReplyDeleteआभार ||
फिर भी
ReplyDeleteउस उबाल को
उस उफान को
रोकता नहीं
क्योंकि
कम से कम
इतना अहसास तो होता है कि
कड़ाह के नीचे आंच है
अच्छी अभिव्यक्ति...
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteफिर भी
ReplyDeleteउस उबाल को
उस उफान को
रोकता नहीं
क्योंकि
कम से कम
इतना अहसास तो होता है कि
कड़ाह के नीचे आंच है
bahut hi badiya .pad kr maza aa gaya
bahut khooba.
ReplyDeleteबहुत भावप्रवण
ReplyDeleteBahut hi satya aur bhavo se paripurna panktiya.
ReplyDeleteजीवन के शतरंज पर
शब्दों की गोटियाँ चराने से।
फिर भी
उस उबाल को
उस उफान को
रोकता नहीं
क्योंकि
कम से कम
इतना अहसास तो होता है कि
कड़ाह के नीचे आंच है
और शायद इतनी उम्मीद कि
कभी तो, कुछ तो पिघलेगा।
पल भर के लिये ही सही
मन की सतह क्षैतिज तो हो जाती है।
aapke ujjwal aaj aur bhavishya ki kamna ke saath.
-Shaifali
मैं जानता हूँ
ReplyDeleteकुछ फर्क नहीं पड़ता
मेरे चीखने से, चिल्लाने से.
जीवन के शतरंज पर
शब्दों की गोटियाँ चराने से।
@ गजब की शुरुआत...
तीसरी पंक्ति कुछ यूँ हो तो 'आक्रोश' का वाह और भी तेज़ होगा.
"मेरे चीखने चिल्लाने से" ....
चौथी पंक्ति में "जीवन की शतरंज पर' यहाँ जीवन और शतरंज में 'संबंध' विभक्ति है.
"शब्दों की गोटियाँ' चराने में एक साथ दो बिम्ब उभर रहे हैं ....
शतरंज-खिलाड़ी का और गडरिये द्वारा बकरियों [got] को चराने का.
कुछ भी तो फर्क नहीं पड़ता,
ReplyDeleteजलती क्षुधाओं को
बेबस आँसुओं को
कलपते तन-मन को
शब्दों की चाशनी में पकाने से।
@ बेहतरीन संवेदना. टिप्पणी देते हुए मुझे भी लग रहा है कि हम (लेखक) तो बस शब्दों की चाशनी चटाने का काम करते रहे हैं.
गरीबी, बेबसी, लाचारी के अन्य विकल्पों पर विचार बहुत कम लोग करते हैं. यदि करते भी हैं तो जरूरतमंद को केवल रुपये-दोरुपये देकर अपनी संवेदना को संतुष्ट कर लेते हैं.
सक्षम और सबल (जनसेवक नाम के जनप्रतिनिधियों) की शब्दों की चाशनी (आश्वासन वाली भाषा) में क्षुधा और आँसु स्वादिष्ट नहीं हो जाते. उनकी कड़वाहट चाशनी लगने से कम नहीं हो जाती.
मुझे ये बिम्ब भी बहुत भाया.
मैं यह भी जानता हूँ कि
ReplyDeleteजो उबलता है अन्दर
तप्त लावे की तरह,
सतह पर आते ही
हो जाता है शीत युक्त...
जम जाता है हिम खण्डों सा,
स्पर्श मात्र से ही
ज़माने की ठंडी हवाओं के।
@ सामाजिक परम्पराओं का निर्वहन ही तप्त लावे को ठंडाकर उसे भी आवासयोग्य भूमि में बदल देता है.
उस उबाल को
ReplyDeleteउस उफान को
रोकता नहीं
क्योंकि
कम से कम
इतना अहसास तो होता है कि
कड़ाह के नीचे आंच है
और शायद इतनी उम्मीद कि
कभी तो, कुछ तो पिघलेगा।
पल भर के लिये ही सही
मन की सतह क्षैतिज तो हो जाती है।
@ मानवीय स्वभाव है कि वह मन की घुटन से तुरंत मुक्ति चाहता है और उसे रोककर उसका भंडारण नहीं कर सकता.
बहुत ही सटीक कहा है 'डॉ. शशि प्रभा जी' ने "घुटन भी एक चेतना है, जो बन्द कमरों में अहर्निश जलती है. धुँआ गहराता जाए तो चीखना ज़रूरी है. अपने गुम हुए अस्तित्व के एहसास के लिए"
bhaw se bhari hui... shandaar:)
ReplyDeleteफिर भी
ReplyDeleteउस उबाल को
उस उफान को
रोकता नहीं
क्योंकि
कम से कम
इतना अहसास तो होता है कि
कड़ाह के नीचे आंच है
और शायद इतनी उम्मीद कि
कभी तो, कुछ तो पिघलेगा।
पल भर के लिये ही सही
मन की सतह क्षैतिज तो हो जाती है।
बेहद उम्दा और गहन अभिव्यक्ति।
अच्छी अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteऔर शायद इतनी उम्मीद कि
ReplyDeleteकभी तो, कुछ तो पिघलेगा।
पल भर के लिये ही सही
मन की सतह क्षैतिज तो हो जाती है।
उम्मीद मन के तापक्रम को संतुलित रखती है।
अच्छी कविता।
धुँआ गहराता जाए तो चीखना ज़रूरी है
ReplyDeleteअपने गुम हुए अस्तित्व के एहसास के लिए ....
पल भर के लिये ही सही
मन की सतह क्षैतिज तो हो जाती है।
अद्धभुत अभिव्यक्ति .... !!
आक्रोश और मन की उथल पुथल को बेहतरीन शब्द दिए !
ReplyDeletebhav se bhari rachna ,dil ko jhakhjor diya ,badhaai
ReplyDelete