औरत दुखी होकर भी दुखी नहीं होती
उम्मीदों का सूरज
उसकी हँसी के पूरब से निकलता है ...
रश्मि प्रभा
===========================================================
===========================================================
हँसती हुयी औरत दुखी नहीं होती
सुनो, एक कविता लिखो
या यूँ ही कुछ पंक्तियाँ
जिन्हें कविता कहा जा सके
और इसी बहाने याद रखा जाए
लिखो तुम औरतों के बारे में
उनके दुःख-दर्द और परेशानियाँ
उनकी समस्याओं के बारे में
पर उनकी खुशियों के बारे में कभी मत लिखो
उनकी सहनशीलता, उदारता और
ममता के बारे में लिखो
उनके सपनों, आकांक्षाओं और इच्छाओं के बारे में
कभी मत लिखो.
बता दो दुनिया को औरतों के दमन के बारे में
उन पर हुए अत्याचारों को लिखो
दमन से आज़ादी के संघर्ष की गाथा
कभी मत लिखो
लिखो औरतों के आँसुओं के बारे में
उनके सीने में पलने वाली पीड़ा
पर उनकी खुशी के बारे में
कभी मत लिखो
औरत के आँसू ये बताते हैं
कि वो कितनी असहाय है
त्याग और तपस्या की मूर्ति
उसे ये आँसू पी लेने चाहिए
इन दुःख दर्दों को
मान लेना चाहिए अपनी नियति
हँसने के अपने अधिकारों के बारे में
नहीं सोचना चाहिए
कि हँसती है जो औरत खिलखिलाकर
दुखी नहीं होती
इसलिए औरत नहीं होती
आराधना चतुर्वेदी
कितना सच लिखा है………
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteek dam sachhi baat
ReplyDeleteदिल की गहराई से निकली हुई अभिव्यक्ति!!!
ReplyDeleteएक औरत के जीवन की सच्चाई यही है , उसके बारे में जितना भी लिखो , उसके ह्रदय की परतों के नीचे झाँकों तो जख्मों के निशान मिल जायेंगे . तब होंठों पर बिखरी बेमानी हंसी अपनी पोल खुद बा खुद खोल देगी. अगर वह औरत है तो बगैर दर्द और कष्टों के जीवन जिया ही नहीं उसने, हर अपने रूप को उसने जिया है एक इन्तहां की तरह.
ReplyDeleteबेबाक चित्रण
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना |
ReplyDeleteआशा
वाह बहुत खूब ...दिल से लिखा गया सच
ReplyDeleteबहुत सुंदर.....
ReplyDeleteसादर.
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना ....
ReplyDeleteकि हँसती है जो औरत खिलखिलाकर
ReplyDeleteदुखी नहीं होती
इसलिए औरत नहीं होती
बिलकुल सही कहा
बहुत पहले टिप्पणी में लिखा था , दुहरा रही हूँ ...
ReplyDeleteरोती स्त्रियों को देख कर कितने कंधे आगे बढ़ आते हैं
हंसती स्त्रियों को देखकर जिनके माथे पर बल पड़ जाते हैं !
वाकई...
ReplyDeleteबहुत सही कहा है ... इस प्रस्तुति में ...आभार
ReplyDeleteबहुत खूब .... !! उत्तम अभिव्यक्ति .... !!
ReplyDeleteयूँ लगा ...आपकी कलम से अपनी जीवनी पढ़ रही हूँ .... !!
संस्कारों का बोझ बचपन से लाद दिया जाता है...लड़की जोर से गा नहीं सकती...ऊँची आवाज़ में बात नहीं कर सकती...और ठहाका लगा के तो कतई हँस नहीं सकती...पर अब वर्जनाएं टूट रहीं हैं...
ReplyDelete