मुंह जैसा मुंह नहीं तुम्हारा
फिर क्यों गला फाड़के रोती हो
रामकली की अम्मा?
तुम्हारे रोने से कोई भला नहीं होगा
क्या सोचती हो, हाथी का दिल दहलेगा?
या कि कांपेंगे टेलीविजन और अखबार वाले...।
सब निश्चिंत और नपुंसक हैं, मेरी तरह।
बहुत शोर हुआ तो हाशिए के सिंगल कॉलम में निपटा दी जाएगी तुम्हारी बेटी
और किसी साफ-सुथरी जगह पर रिकॉर्ड पीटूसी में
बाकी एक सौ निन्यानबे लाशें।
दूर, परासपानी में करमा गाते-गाते ठहर गया है बलिराम खरवार उर्फ परगट बाबा
तुम भी चुप हो जाओ।
झारखंड तक लाश भी नहीं लौटेगी रामकली की।
वहीं, कहीं दफना दी गई होगी...।
बिचौलियों से बचेंगे तो कुछ हरे नोट तुम्हें भी मिलेंगे।
रामप्रताप की बीवी देखो न, चुप है।
बड़ा बेटा जानता है, उसे भी यहीं आना होगा,
किसी पहाड़ की छाती चीरकर लाइमस्टोन निकालते, दफ़न होने के लिए।
एक सौ बीस किलोमीटर दूर बनारस के लहरतारा में जब कबीर चुपचाप हैं
तब तुम ही रोकर क्या करोगी रामकली की अम्मा?
पहाड़ गिरने के बाद छींकते-छींकते हाल बुरा है,
कुछ तो उनकी फिक्र करो।
लाशें गिनने आए साहब को गन्ने का रस तो पी लेने दो।
सुना है, दुकानें सजी हैं वहां, अंगूर बिक रहा है।
रात तक अंगूरी भी मिलेगी।
तुम्हारी मंजरी के लिए कोई लोरिक पत्थर का सीना नहीं तोड़ेगा...
वो यहीं कहीं बिकेगी
काम से लौटते हुए बीस, चालीस या हद से हद सौ रुपए में।
खेत में ही नीलाम करेगी अपनी अस्मत।
तुम्हारी ढपाई में खरीदार सिर झुकाकर घुसेंगे तो है नहीं।
एक तो कच्ची बनी है, दूसरे कोई देवी स्थान थोड़े है...
वहां खड़े होना तो दूर, बस लेटा जा सकता है...।
मत रोओ, तुम मज़दूर हो.
ऐसी मौतें हमारे सफेद रजिस्टरों में दर्ज नहीं होतीं।
नेता जी की खादी पर रामप्रताप के खून के छींटे नहीं दिखेंगे, वो ड्राईक्लीन करा लेंगे।
बहुत महंगी मशीन में धुलता है उनका कुरता-पायजामा।
मत रोओ रामकली की अम्मा,
इत्ता शोर काहे करती हो...
सोनभद्र में नक्सली पैदा होते रहेंगे
कुछ जिएंगे मरते हुए,
कुछ मरेंगे फिर जी जाने के लिए।
नेता नोट छापते रहेंगे,
पहाड़ खोदते रहेंगे।
सब कुछ ऐसा ही होगा,
बस बिजलीघर के बगल के गांव में बत्ती नहीं जलेगी।
जंगल से शहर तक आने को पुल नहीं बनेगा।
कई मौतें दवा के इंतज़ार में रास्ते में ही होंगी।
और मैं
अगली बार, सीमेंट फैक्टरी के गेस्टहाउस में मुफ्त की चाय पीते हुए भी शर्मिंदा नहीं होऊंगा...
तुम कोई रानी नहीं हो, जो तुम्हारे महल के डूबने पर मैं कहानियां रचूं
चुप हो जाओ रामरती की अम्मा,
धूल भरे कस्बे में रात हो गई है
और जेसीबी मशीन भी कितनी देर तक रामप्रताप की लाश टांगे रहेगी,
उसे शहर लौटना है...
सुना है, मंत्री जी के घर के आगे सड़क बन रही है...।
चण्डीदत्त शुक्ल
http://chanditest.blogspot.in/
सब कुछ ऐसा ही होगा,
ReplyDeleteबस बिजलीघर के बगल के गांव में बत्ती नहीं जलेगी।
जंगल से शहर तक आने को पुल नहीं बनेगा।
कई मौतें दवा के इंतज़ार में रास्ते में ही होंगी।
jai baba banaras...
एक कडवा सच्।
ReplyDeleteऐसी मौतें हमारे सफेद रजिस्टरों में दर्ज नहीं होतीं।
ReplyDeleteनेता जी की खादी पर रामप्रताप के खून के छींटे नहीं दिखेंगे, वो ड्राईक्लीन(ड्राईक्लीन क्यों कराने जाए ... नई सिलवा लेगें) करा लेंगे।
सब की हकीकत या यूँ कहें सच्चाई की पोल खोलती रचना .... !!
सुना है, मंत्री जी के घर के आगे सड़क बन रही है..
ReplyDeleteएक सच्चाई ................
बेहतरीन प्रस्तुति !
ReplyDeletebehad prabhawshaali rachna...
ReplyDeleteकितनी ही रामकली और कृष्ण कली आज बेबस हैं...कवि हृदय उनकी वेदना को अपने स्वर देता है शब्द देता है और पाठक उसे पढ़कर एक ठंडी आह भरने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाते...
ReplyDeleteसब निश्चिंत और नपुंसक हैं, मेरी तरह।
ReplyDeleteअत्यंत समीचीन और प्रासंगिक रचना
मार्मिक
marmik.....
ReplyDeleteनि:शब्द कर दिया है कविता ने..
ReplyDelete"शहर है! समाज है! विकास का दौर है!जीवन है! क्या करें? हम संवेदना रखते हैं! त्त्च्च! त्त्च्च! त्त्तच्च्च!सच में बुरा हुआ!
ReplyDeleteअब इस से ज्यादा और क्या कहा जाये!"
उम्दा और झंकझोर देने वाली प्रस्तुति!!