कवि और उसकी कविता
प्रकृति कह लो , धड़कन कह लो
प्रतिध्वनि कह लो
पत्ते पर ठहरी ओस की बूंद कह लो
वही वेद, वही ऋचा
और उसके एहसास यज्ञकुंड !
कवि कोई बनता नहीं
वह तो बस जीता है
जीने के लिए मौसम को अनुकूल बनाता है
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कवि निरपेक्ष होते हैं सापेक्ष नहीं
"एक बात बताऊँ तुम्हें,
कवि निरपेक्ष होते हैं सापेक्ष नहीं
बिलकुल वैसे ही जैसे किसी नवजात के पैदा होने पर सबसे ज्यादा शोर करते हैं हिजड़े
कवि सदैव तटस्थ भाव के प्रेमी होते हैं
कवियों में प्रायः होता है साक्षीभाव
यह भी समझ लो कि--
जिसमें होतां है साक्षीभाव उसमें होता है संघर्ष मैं शामिल होने के साहस का अभाव
कवि वातानुकूलित कमरे की बंद खिड़की से देखता है वख्त की लोमहर्षक आंधी
कवि वातानुकूलित कमरे की बंद खिड़की से देखता है ओस की बूँदें, गिरती वर्फ
कवि वातानुकूलित कमरे की बंद खिड़की से देखता है धूप मैं तपते खेत खलिहान और किसान
कवि अपने माता पिता का पूरे जीवन तिरष्कार करके करते हैं कागज़ पर कविता में उनकी वेदना का अविष्कार
कवि मुफ्त की दारू पीकर फुफकारता है क्रान्ति
कवि बंद कमरों मैं खुली बहस करता है
कवि के किरदार होते हैं सिंथेटिक और नज़र होती है प्रेग्मैटिक
कविता अगर शिल्प है तो षड्यंत्र का सुन्दर स्वरुप है जो सच में कुरूप है
कविता अगर संवेदना है तो संघर्ष का शेषफल बताओ विभाज्य इकाई की वेदना भी सुनाओ
कविता अगर जागते समाज को सुलाती हुई लोरी है तो वह वैश्या के कोठे पर रखी पान की गिलौरी है
कवि दूसरे को खर्च कर अपनी कविता का कच्चा माल बनाता है तब एक कविता गुनगुनाता है
अगर सापेक्ष हो तो संघर्ष मैं शामिल हो जाओ और निरपेक्ष हो तो कविता सुनाओ
जब सीधी सपाट बातें भी लोगों की समझ मैं न आ रही हों तो कविता की जरूरत है भी क्या ?
बहुत सुन लीं जनवादी कविता से अवसरवादी व्यख्या
अगर समझो तो समझ लो यह भी कविता एक निर्विवाद संवाद भी है
समाज के बीच खींची दीवार का कान भी है
कविता पत्थरों की धड़कन है
कविता तारे का एकाकीपन भी है
कविता जंगल में रोने का संवाद है
कविता एक गुनगुनाया जानेवाला अवसाद है
कविता क्रान्ति की जड़ों की खाद है
अगर हो सके तो लड़ाई मैं शामिल हो जाओ और जब युद्ध मैं घायल हो तब ही कविता गुनगुनाओ."
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति।
ReplyDeleteकहते है...जहाँ न पहुंचे रवि...वहाँ पहुंचे कवि!
ReplyDeleteकवि तो बंद कमरे में भी जंगल में होने की कल्पना करता है और उसके सामने खड़े शेर पर कविता लिख देता है!
....बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
sundar
ReplyDeleteभावयुक्त प्रस्तुति!!
ReplyDeleteजी आपकी बात सही है!
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत...........
ReplyDeleteसादर.
बहुत खूबसूरत.. प्रस्तुति!
ReplyDeleteकविता जंगल में रोने का संवाद है
ReplyDeleteहम्म!
कवि दृष्टा होता है .प्रागुक्ति करता है अनागत की .बेहतरीन बहु -आयामी रचना कवि के पुर छोर का पोस्ट -माटम करती .
ReplyDeleteअब तो कविता परिभाषा बड़ी विकट है.
ReplyDeleteखुल्लम-खुल्ला कविता के साथ कपट है.
कविता कवि की कल्पना नहीं, न लत है.
कविता वादों का नहीं कोई सम्पुट है.
कविता न तो मद्यप का कोई नशा है.
कविता तो रसना-हृत की मध्य दशा है.
जिसकी निःसृति कवि को वैसे ही होती
जैसे गर्भस्थ 'शिशु' प्रसव पर होती.
जिसकी पीड़ा जच्चा को लगे सुखद है.
कविता भी ऎसी दशा बिना सरहद है.
(भावों को तुक में पिरोकर कहना चाहा है.)
रश्मि प्रभा जी,
आपके द्वारा प्रस्तुत राजीव जी की 'विचार कविता' वास्तव में 'बौद्धिक आनंद' की जनक है, मुझे इस शैली की कवितायें बहुत भाती हैं.
कवियों के बचाव में एक बात कहना चाहता हूँ : कवि लगता बेशक पारिवारिक और सामाजिक जीवन में निर्लिप्त है किन्तु जिसे जिसपर समग्र चिंतन करना होगा है उसे उनसे दूर जाना ही होता है...
वस्तु अथवा व्यक्ति से जितने दूर जायेंगे उतना ही स्पष्ट व्याख्या कर पायेंगे... समग्र समीक्षा के लिये, आँखों में सम्पूर्ण लाने के लिये कुछ दूर होना ही होता है.
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति...