मेरे भीतर
उगा है पेड़
पर नहीँ बैठी है
अभी कोई भी चिड़िया
नहीँ मुस्कुराया है
अभी कोई भी फूल
और भंवरे की तान
सुनने के लिए
मन कितना-कितना तरसा है
मेरे भीतर
जो पेड़ उगा है
उसकी जड़ेँ
मेरी अपनी जमीन को
कब की छोड़ चुकी है
इसलिए एक ठूंठ को ढोता
मेरा कंधा थक चुका है
थक चुकी है
मेरे आसरे की सारी किरणेँ
दीप कब का बुझ चुका है
और चुक गयी है
उम्र की वो सारी लकीरेँ
मेरे समय की किताबेँ
संस्कृति की आँच भी
वे जड़ेँ
डोलती है परछांई बनकर
पश्चिम की हवाओँ मेँ
पता पुछती है
उन कल्बोँ की
जहाँ खेला जाता है
पत्नी बदलने का खेल
स्वाद संस्कृति का जुआ
सुलगाया जाता है हशिश
और गाया जाता है
फूहड़ गीत
स्वाद की तलाश मेँ वे
बंद कमरे के
विछावन पर लेट जाते हैँ
और भूल जाते हैँ
अपनी जड़ोँ को
अच्छा है
मेरे भीतर का पेड़
तुम्हारे भीतर नहीँ उतरा
नहीँ तो बेस्वाद जिँदगी
तुम्हारी जिँदगी को बदरंग कर देता ।
* मोतीलाल/राउरकेला
सुंदर और सोचने को विवश करती कविता.. टाइपिंग की त्रुटि: क्लब का कल्ब और हशीश का हशिश हो गया है..
ReplyDeleteबहुत गहरे भाव लिए है कविता..
ReplyDeleteअति सुन्दर!!!
सादर.
bahot achchi lagi......
ReplyDeleteबेहद गहर भाव सोचने को मजबूर करते हैं।
ReplyDeleteइनकी जिंदगी तो बदरंग अब ही अधिक है। और अधिक की चाह में किसी भी तरह का स्वाद इनके जिह्वा को नहीं भा रहा, और जब ऐ अफसोस करते हैं तो बचा ही कुछ नहीं रहता.
ReplyDeleteकितनी सुन्दर और कटू कविता लिखी है जैसे कि कलम न होकर तलवार हो...
स्वाद की तलाश मेँ वे
ReplyDeleteबंद कमरे के
विछावन पर लेट जाते हैँ
और भूल जाते हैँ
अपनी जड़ोँ को ...मन को छू गई अद्भुत रचना
स्वाद की तलाश मेँ वे
ReplyDeleteबंद कमरे के
विछावन पर लेट जाते हैँ
और भूल जाते हैँ
अपनी जड़ोँ को ...
कुछ लोग किस ओर भाग रहे हैं ....????
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteमेरे भीतर
ReplyDeleteउगा है पेड़
पर नहीँ बैठी है
अभी कोई भी चिड़िया
नहीँ मुस्कुराया है
अभी कोई भी फूल
और भंवरे की तान
सुनने के लिए
मन कितना-कितना तरसा है
Behad gahan aur sunder....
bahut hi sundar rachana .........waah
ReplyDeleteबेहद पसंद आई।
ReplyDeleteबहुत बढि़या प्रस्तुति ।
ReplyDelete