मेरे कन्धे पर
श्मसान के रास्ते झूल रहे है
और सभी लाशेँ
कोल्हू के बैल सा
उन रास्तोँ मेँ घुमते चले जा रहे है
पूर्वजोँ की आहेँ
जिनसे टकराकर इतिहास
अर्थी बन गये हैँ
और खाली पेट मेँ वे
एक द्वीप मेँ तब्दील हो गये हैँ
फिरभी खामोशी के चित्कार मेँ
मेरे वे बोझ
इतिहास के पन्नोँ को
कब से छोड़ चुके हैँ
तपिश के ऊँचे टीले पर खड़ी
आज की पीढ़ी
अपनी जमीन को छोड़
इतिहास को जलाएँगे
और सेकेगेँ हाथ
उन बोझो से त्रस्त होकर
जिसे पूर्वजोँ के कन्धोँ ने
यहाँ तक ढोकर ला दिया है
शक्ति व धर्म की बातेँ
यदि हम छोड़ देँ
उन कुटियोँ की छांह
तब भी संवेदनाओँ के इस
इक्कसवीँ पीढी मेँ
क्या हम झांक पाएगेँ
अपने ही कालरोँ मेँ
कि गन्दगी की पर्तेँ
आखिर रसोई तक
कैसे चली आयी
मेरे कन्धे गवाह हैँ
उन भूली स्मृतियोँ के
उन भूले श्रमोँ के
उन भूले समर्पणोँ के
जहाँ से रास्ते
श्मसान के बीच से
जरुर निकलती है
पर मिटाने की लौ को
दूर से भी छुआ नहीँ है ।
* मोतीलाल/राउरकेला
बेहद सशक्त अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteअंतर्मन का नाद ........
ReplyDeleteतपिश के ऊँचे टीले पर खड़ी
ReplyDeleteआज की पीढ़ी
अपनी जमीन को छोड़
इतिहास को जलाएँगे
और सेकेगेँ हाथ
उन बोझो से त्रस्त होकर
जिसे पूर्वजोँ के कन्धोँ ने
यहाँ तक ढोकर ला दिया है
नई पीढ़ी को अपना कन्धा मजबूत करना होगा।
अच्छी कविता।