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रंग बदलती दुनिया में, खुद को बदल न
पाये हम
उलझी हुई उलझनों को और अधिक उलझाये हम
भैस बराबर अक्षर
फिर भी है वह ज्ञाता
रिश्तों के देहरी पर
अनुबंधों का तांता
भ्रमित करने के चक्कर में, खुद ही को भरमाये
हम
उलझी हुई उलझनों को और अधिक उलझाये हम
नौ-नब्बे के चक्कर में
जम कर हुई उगाही
राह बताने को आतुर
भटके हुए ये राही
अस्तित्व खोखला इतना कि रह गए महज साये हम
उलझी हुई उलझनों को और अधिक उलझाये हम
‘पर’ बिना परिंदा ये
गगन को चूम रहा है
आखेटक मन देखो
फंदा लेकर घूम रहा है
प्रश्नों के प्रतिउत्तर में प्रश्न, भौचक्का खड़े मुंह बाये हम
उलझी हुई उलझनों को और
अधिक उलझाये हम !
एम् वर्मा
बेहद गहन भावाव्यक्ति।
ReplyDeleteरवीन्द्र प्रभात जी की पारखी नज़र की दाद देते हुए .....
ReplyDeleteये ....
रंग बदलती दुनिया में, खुद को बदल न पाये हम(आप)
इसलिए ....
प्रश्नों के प्रतिउत्तर में प्रश्न, भौचक्का खड़े मुंह बाये हम(आप)
और....
उलझी हुई उलझनों को और अधिक उलझाये हम(आप) .... !
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
ReplyDeleteजरुरी नहीं कि जिंदगी सुलझ जाए ,सुलझाने से
ReplyDeleteहो गुलाबी हर सवेरा ,आँखे खुल जाने से ||....अनु
अदभुत अभिवयक्ति....
ReplyDeleteधन्यवाद वटवृक्ष !
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