ग़ज़ल
हवा में घुला हुआ यह जहर क्यों है
फरेब के जैसा मेरा शहर क्यों है
भोला दीखता है उसके चहरे जैसा -
हालात साजिशों की तरह मगर क्यों है
फूल भी है, शबनम भी, गुलाब भी,
किसी के नसीब में हरदम पत्थर क्यों है
आँखों में जिसने उम्र भर सहेजा था आसमां,
कटे हुए आज उसी के पर क्यों है
उठ रही है आंधियां, बिखर रहा है कुछ,
बनबास के जैसा आज यह घर क्यों है
रात-भर ये दुनिया आराम से सोती है,
मेरे दिल में बेचैनी हर पहर क्यों है
नाव टूटी हुयी, मुझे तैरना नहीं मालूम,
नदी के पार फिर उसका घर क्यों है .
बसंत आर्य
http://thahakaa.blogspot.com/
नाव टूटी हुयी, मुझे तैरना नहीं मालूम,
ReplyDeleteनदी के पार फिर उसका घर क्यों है .
agni pariksha ke liye......
आँखों में जिसने उम्र भर सहेजा था आसमां,
ReplyDeleteकटे हुए आज उसी के पर क्यों है.........बहुत खुबसूरत गजल...
हवा में घुला हुआ यह जहर क्यों है
ReplyDeleteफरेब के जैसा मेरा शहर क्यों है
भोला दीखता है उसके चहरे जैसा -
हालात साजिशों की तरह मगर क्यों है
बहुत सुन्दर गज़ल
बहुत सुन्दर.
ReplyDeleteक्या कहने
ReplyDeleteबहुत सुंदर
सुन्दर गज़ल..
ReplyDeleteक्या बात है!
ReplyDeleteअंतिम पंक्तियाँ तो बेहतरीन हैं..
नाव टूटी हुयी, मुझे तैरना नहीं मालूम,
ReplyDeleteनदी के पार फिर उसका घर क्यों है
mujhe ye panktiyan sabse acchi lagi
नाव टूटी हुयी, मुझे तैरना नहीं मालूम,
ReplyDeleteनदी के पार फिर उसका घर क्यों है
यही तो विसंगति है ..
बहुत सुन्दर