मैं पत्थर 
मुझमें है प्राण 
जो देव रूप लेता है 
मुझे खंडित करके 
देवता बनने की खातिर तुम विध्वंसक हो गए हो ....




रश्मि प्रभा



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मैं पत्थर
शायद बहुत कठोर
क्यूंकि तुम इंसान  
ऐसा समझते हो।

प्रहार करते हो
अपने स्वार्थ के लिए
तराशने के बहाने
काया छिन्न भिन्न कर देते हो
भगवान् बनाकर पूजते भी हो तो
अपने लिए।

और मैं तो तुम्हारे लिए ही
बांधों में चुना जाता हूँ
दीवारों में चुना जाता हूँ
कब्र बनता हूँ 
स्मारक बनता हूँ  
        
रास्ते में फेंक देते हो
तो ज़माने की ठोकरें सहता हूँ
फिर भी बद दुआएं ही पाता हूँ।

तुम्हारे जन्म से लेकर
मृत्यु तक  हर अवस्था में
तुम्हारे इर्द गिर्द सहारा देता हूँ।

पर, फिर भी तुम मुझे
हेय दृष्टि से देखते हो
मेरी तोहीन करते हो
किसी को यह कहकर कि, 
अरे! पत्थर मत बन।

इंसानों! कभी तो समझो
मेरे भी जज़्बात हैं
मुझे भी मोहब्बत है
अपने आस पास की
आबो हवा से, लोगों से
पानी से, पेड़ों से, जीवों से।

मुझे जब चाहे तोड़-फोड़कर
यहाँ से वहाँ मत फेंको
मुझे भी ज़िंदा रहने दो
मेरी मोहब्बत के साथ।।। 

[DSC01770.JPG]



देवेन्द्र शर्मा 

7 comments:

  1. बहुत खूब ,बेजुबान को भी आपने जबान दी
    New post : दो शहीद

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  2. हर चीज़ का अपना मूल्य होता है ....-पत्थर को देखने का ये दूसरा नज़रिया अच्छा लगा !
    ~सादर !!!

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  3. Madam, Bahut bahut shukriya kavita shamil karne k lie...

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  4. बहुत ही सुन्दर रचना |पत्थर की आत्मकथा उसके मन की व्यथा ,बहुत भावपूर्ण रचना |
    आशा

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  5. सच कहा, पत्थर भी घरों का हिस्सा है।

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  6. सच कहा इतनी उपयोगी चीज को हम नकारात्मक टिप्पणियों से नवाजते हैं ,बहुत बढ़िया प्रस्तुति ,नव वर्ष की बधाइयां

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  7. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज शनिवार (12-1-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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