प्रेम भी आकार लेता है जब
तो उससे पहले धुंध होती है
गहरे अँधेरे में बूंद बूंद बरसती धुंध
माँ की लोरियों जैसी
जीवन के अर्थ देती है
मन को एक नहीं,दो नहीं - अनगिनत पंख मिलते हैं
मुंडेर कितना भी खामोश हो
दाने मिल ही जाते हैं - संजीवनी जैसे
रश्मि प्रभा
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उस शाम
शब्दों के स्तर पर
उभर कर
मेरी कुछ इच्छाओं ने
घेर डाला मुझे ।
ट्रैफिक सिग्नल पर
विपरीत दिशाओं में
भागती सड़क
दूर अपनी गरमी में
पिघलता सूरज
और इधर से उधर दौड़ती
खिलखिलाती
लड़कियों को देख
मुझे याद आया
कि अभी अभी तो
आधी रात में
उठ कर सोचा था
प्रेम एक गहन
दुर्गम सपना है
लड़की की आँखें
परछाईयाँ हैं
ऐसे ही एक रात
फिर सोचा था
मेरी पूरी साक्षर योग्यता
तय होनी है
एक नौकरी पा जाने के बाबत ।
अभी कल ही तो
तब्दील हो गई थी
कविता
सपने से शौक में !
वक़्त
एक सुनसान रास्ता
मेरे जीवन के बीचोंबीच से
गुज़रता हुआ ।
इसी वक़्त के रास्ते में
पीछे छूट गई
कोशिश
सब कुछ जान लेने की ।
तस्वीरें
कुछ अप्राप्य नायिकाओं की ।
बचपन
जो किशोरावस्था से टकराकर
रोज़ टूटता था
मेरे समक्ष ।
कभी यादें
पाँव में गड़े
काँटे थे
गड़ते थे
या पक चुके थे ।
अभी अभी
ख़्याल आया था
आई. आई. टी. जाऊँगा
इंजीनियर बनूँगा
और हर रात
भौतिकी के
किसी एक सवाल के
जाल में उलझकर
रात भर में
तितर बितर सपना
दिन भर
ख़ुद को सांत्वना
देते देते
इंजीनियर बन ही गया !
गिर कर खो गई
सपनों की छोटी सी पोटली
जाने इंजीनियरिंग के
किस सेमिस्टर में ?
अभी अभी
मंदिर में हाथ जोड़
खड़ा रह गया था
बिना कुछ सोचे
बिना कुछ
माँगे ।
फिर माँ के साथ
लौटा था घर
माँ को नई साड़ी दिलाने की तमन्ना
तब तक
नहीं जागी थी शायद
तब निक्कर
और पतलून के बीच का फ़र्क
पैरों पर उग़े
बाल नहीं थे
तब मंदिर से घर लौटना
प्रसाद खा लेने की
इच्छा भर थी !
फिर लौटा था घर
खेल के मैदान से
हाथ में
क्रिकेट का बैट लेकर
समय के थकने के पश्चात भी
देह में
बची रह जाती थी
थोड़ी सी उमंग !
शाम को
दूध पीता हुआ भी
बोलता था क्रिकेट !
और फिर शाम की पढ़ाई
घड़ी की तरफ
ताकते हुए
यही समय होता था
जब टीवी पर समाचार
सबसे आकर्षक लगता था
और रसोई से आती
रोटी की ख़ुशबू
सबसे मोहक ।
एक दिन
फिर चली गई थी रोशनी
लोडशेडिंग
मोमबत्ती की आभा में
मेरे पैरों की परछाई
चार नंबर के
जूते भर की थी
बाबा गुनगुनाने लगे थे
रविन्द्र-संगीत ।
मच्छरों की संख्या
बढ़ गई थी अचानक
नहीं बदला था
तो बस
वो आटे का गुंथना
और समय पर
सब्ज़ियों का कटना ।
रोशनी के आने पर
बल्ब निकाल कर
ट्यूब लाईट लगी थी घर में
और टीवी लेकर लौटे थे बाबा
उस डिब्बे में भूत है बतलाकर
मुझे रखा गया था
टीवी से दूर
कई दिनों तक !
अगर डिब्बे से भूत निकलता
तो मुझसे लम्बा न होता ।
टीवी पर किसी जिन्न को
तोते में
अपनी आत्मा बसाता देख
इन्हीं दिनों मैंने
‘क’ ‘ख’ ‘ग’ पढ़ते हुए
अपनी आत्मा सौंप दी थी
साहित्य को !
सबसे पहली कविता
माँ ने सुनाई थी
कौन सी थी
याद नहीं !
गोद में लिटा था माँ के तब भी
पर शायद
पूरा समा जाता था
इस जांघ पर सिर
और उस पर एड़ी रख
जब लोरियों की आवाज़ में
पूरा घर
सोता सा मालूम पड़ता था
तब सपनों में भी
एक माँ ही थी
जो बहुत मीठा गाती थी !
फिर अचानक
एक कर्कश स्वर गूँज उठा
टूट गई तंद्रा
पीछे वाले के बार-बार हॉर्न बजाने पर
दफ्तर से लौटते हुए
ट्रैफिक की भीड़ में
उस शाम
मुझे रास्ता
बड़ा ही सूना सा मालूम पड़ा ।।
बस यही है जीवन ………सु्न्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDelete...एक छोटासा मन और उसमें बेशुमार यादे,आकांक्षाएं,अनुभूतियाँ और कितना कुछ मौजूद होने पर भी जीवन के आख़िरी क्षण तक जगह बची ही रहती है!..बहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteजीवन न जाने कितनी राहों से होकर निकलता, अनजानी और रोचक राहों से।
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति.. बहुत ही ख़ूबसूरती से कही गयी!!
ReplyDeleteरोचक अनुभूतियों से भरी लाजबाब अभिव्यक्ति,,,
ReplyDeleterecent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,
भौतिकी के
ReplyDeleteकिसी एक सवाल के
जाल में उलझकर
रात भर में
तितर बितर सपना
दिन भर
ख़ुद को सांत्वना
देते देते
इंजीनियर बन ही गया !
जाने कितने युवाओं के दिल का हाल सुनाती प्यारी सी रचना..बहुत बधाई इस सृजन के लिए !
ye bhav sirf mahsoos krne vale hi shabdo me bya kr skte h sir ...mai analysis to nhi kr sakti bs ek word h man me ....spontaneous flow ....
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ! इस अंतर्कथा के माध्यम से एक सम्पूर्ण जीवन का शब्दचित्र खींच दिया आपने जो बड़ा ही हृदयग्राही है ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteजीवन के यथार्थ से परिचय कराती सुन्दर रचना,आभार।
ReplyDeleteऐश-औ-आराम का सामान कब थी,
ReplyDeleteजिंदगी इस कदर आसान कब थी।
सौरभ रॉय 'भगीरथ' जी की बहुत सुन्दर रचना प्रस्तुति के लिए आभार
ReplyDeleteधन्यवाद । आप मेरी और भी कवितायेँ यहाँ पढ़ सकते हैं - http://souravroy.com/poems/
ReplyDeleteसौरभ राय