मैंने अपनी कमजोरी से
खुद को तुमसे बाँध लिया
मान लिया तुम भी मेरे ही हो .... !
पर भ्रम के धागे खुलते गए
चलो - तुम भी मुक्त
मैं भी मुक्त ..........
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मुक्त करती हूँ तुम्हे
हर उस बंधन से
जो बुने थे
सिर्फ और सिर्फ मैंने
शायद उसमे
ना तुम बंध सके
ना मैं बाँध सकी
निकल जाना है
अलग राह पर
लेकर अपने
सपनो की गठरी
जिसे सौपना था तुम्हे
खोलना था बैठकर
तुम्हारे सामने
लेकिन अब नहीं...!
क्योंकि जानती हूँ
गठरी खुलते ही
बिखर जायेंगे
मेरे सारे सपने
कैसे समेटूंगी भला
दोबारा इनको
और हाँ...!
इतनी सामर्थ्य नहीं मुझमे
कि समेट सकूँ इन्हें
इसीलिए ...
कसकर बांध दिया है
मैंने उन गाठों को
जो ढीली पड़ गईं थी
मुझसे अनजाने में
अच्छा अब चलती हूँ
अकेले जीना चाहती हूँ
बची - खुची साँसों को
हो सकता है...?
तुम्हे मुक्त करके
मैं भी मुक्ति पा जाऊं....
gaanthe baandhne me hi bhalayi hai.
ReplyDeletebahut bahut acchhi rachna.
हो सकता है...?
ReplyDeleteतुम्हे मुक्त करके
मैं भी मुक्ति पा जाऊं....
....
गहन भाव लिए अति उत्तम रचना..
ReplyDelete:-)
हर व्यक्ति को मुक्ति का अधिकार है...दूसरों को मुक्त करके ही...खुद को भी मुक्त किया जा सकता है...सुन्दर भाव...
ReplyDeleteअच्छा अब चलती हूँ
ReplyDeleteअकेले जीना चाहती हूँ
बची - खुची साँसों को
हो सकता है...?
तुम्हे मुक्त करके
मैं भी मुक्ति पा जाऊं....
मुक्ति भाव से ये गांठे कभी ढीली ना पड़े
ReplyDeleteअकेले जीना चाहती हूँ
ReplyDeleteबची - खुची साँसों को
हो सकता है...?
तुम्हे मुक्त करके
मैं भी मुक्ति पा जाऊं...
सर्तःक सृजन. सुंदर सन्देश.
ReplyDeleteअकेले जीना चाहती हूँ
बची - खुची साँसों को
हो सकता है...?
तुम्हे मुक्त करके
मैं भी मुक्ति पा जाऊं...
दिल का दर्द लिए सुन्दर अभिव्यक्ति ,
बहुत सुन्दर भाव
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