मैं सोचती रही
शब्दों की विरासत
मिली थी तुम्हें
या आत्ममंथन ने की थी रचना
शब्दों की
जब भी तुम भावनाओं के
दीप प्रज्जवलित करती तो
उनकी रोशनी से
जगमगा उठती मंदिर की मूर्तियाँ
ईश वंदना में झुके हुए शीष
घंटे की ध्वनि से
खुद को तंरगित महसूस करते
जैसे आशीष बरस रहा हो
एक अधीर मन की छटपटाहट
जिसे कहना कठिन था
बस समझा जा सकता था
पारखी नज़रों से
यही वरदान मिला था तुम्हें भी
परखने का ..
..............
मैने देखा है
तुम्हारी आंखों में अपनापन
बोली में सहजता
संस्कारों की हथेली पर
अखंड ज्योत जलती रहती है संयम की
तेज हवाओं में भी
उस लौ की स्थिरता
तुम्हारे बुलंद इरादों का दर्श दिखलाती है
....
तम घबराता है
सत्य अडिग रहता है
भय हार जाता है जब तुम्हें डराकर
ईश्वर को भी जब तुम कहती हो
मैं तैयार हूँ हर चुनौती के लिए
सोचो परिस्थितियाँ विचारमग्न होकर
जस की तस
उचित समय का इन्तजार करने लगें जब
उन लम्हों का साक्षी
कौन होगा सिवाय ईश्वर के
जो देखकर सब
अपनी मंद मुस्कान कायम रखता है
विजय तो होनी ही थी
विश्वास का बीज़ मंत्र विरासत में जो मिला था ...
सीमा सिंघल
अच्छी और संवेदनशील कविता .......इस कविता में भावनाओं का एक ऐसा प्रवाह है जिसमें संस्कृतियाँ करवट लेती दिखाई दे रही है . सीमा जी , एक सुन्दर और सारगर्भित कविता के लिए बहुत-बहुत बधाईयाँ !
ReplyDeleteshabdo ki virasat sahej kar rakhna...:)
ReplyDeleteआपकी कविताओं में भावनाओं की सूक्ष्म धाराएँ बहती हैं, एकदम सत्य सी... निर्विरोध, बेधड़क!
ReplyDeleteपहली बार आपका नाम जाना, मैं तो 'सदा' जी के नाम से ही जानता था.. :)
बहुत शुभकामनाएं आपको पुस्तक और कविता संग्रह के लिए.
सादर,
मधुरेश
्सीमा जी का लेखन गहनता लिये होता है।
ReplyDeleteतुम्हारी आंखों में अपनापन
ReplyDeleteबोली में सहजता
संस्कारों की हथेली पर
अखंड ज्योत जलती रहती है संयम की
तेज हवाओं में भी
उस लौ की स्थिरता
तुम्हारे बुलंद इरादों का दर्श दिखलाती है
bahut hi saarthak aur prerak rachna....
आपका आभार ।
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