रिश्तों की खुशबू के लिए
चलो दूर हो जाते हैं
जो पाया जो खोया
उसका गिला नहीं
एक खुशबू है
उसे जिंदा रखें
चलो दूर हो जाएँ ......



रश्मि प्रभा


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कहानी: खुशबू जैसे लोग ..
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और अचानक घडी ने आवाज़ दी.. और दो छोटी छोटी चिड़ियों ने अचानक इक छोटा सा दरवाज़ा खोला और 'कुकू' की आवाज़ ने कमरे की ख़ामोशी को तोडा..
हल्की भूरी सी रौशनी में सिगरेट के धुंए के छल्ले बनाते हुए, अपनी आराम कुर्सी पर अधलेटे हुए ही कविता ने बेमन से घडी की तरफ देखा, 11 बज चुके थे, फिर नज़र घुमाई अपने 10*10 के छोटे से कमरे में, कैलेंडर पर नज़र गई
31 दिसंबर 2009 , यही दिन था जब उसने पहली बार इस घर में कदम रखा था
उस दिन से आज तक येः कमरा उसे अपने किसी दोस्त की तरह ही लगता था, जिस से उसने अपने दिल की जाने कितनी बातें कही.. जब भी रोने का दिल हुआ तो इसी आराम कुर्सी पर बैठ घंटो शिकायतें की..
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आँखें कड्वाने लगी थी, सोचा कुछ देर सो लिया जाये, फिर सुबह जल्दी भी उठना है.
सिगरेट बुझाई तो ध्यान गया ash tray में पड़ी राख पर..
उफ़.. आज तो कुछ ज्यादा ही हो गई, कमबख्त ने बड़ी बुरी लत लगाई थी..अब छूटती ही नहीं
येः कमबख्त और कोई नहीं, भाई था.. मुंह बोला भाई, भाई बहनों की बुरी आदतें छुडाते हैं, येः लगा गया था..
(संगम, यूँ तो मुह बोला भाई था पर, माना उसे अपने भाई से भी ज्यादा इक बार भैया की बात को अनसुना कर देती थी, पर संगम ने कह दिया मानो पत्थर की लकीर.. कभी कभी इंसान कितना मजबूर हो जाता है रिश्तों से.. या शायद खुद को कर लेता है मजबूर..)
कहता था, कमबख्त जब देखो तब दुखी रहती है, उड़ा दे धुंए में गम को छल्ला बना के, और कैद कर ले ख़ुशी को साँसों में
ख़ुशी...जाने ख़ुशी कहाँ से आती है .. कभी मिली नहीं पर ग़म भुलाने को इन छल्लों की लत जरुर लग गई.
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बिस्तर पर जाने कब तक लेटे हुए, आँखें खोलते बंद करते, पलकों पर नींद कब आके बैठी पता ही नहीं चला..और सुबह अलार्म बजा तो नींद की बंदिश टूटी.
आँखें मलते हुए बैठ कर कविता ने हाथ जोड़ कर ईश्वर को धन्यवाद किया, इक नए दिन के लिए और फिर बिस्तर परे कर घडी को इक नज़र देखा 3:05
5.15 की ट्रेन है, सोचा अभी काफी वक़्त है और बाथरूम का रुख किया,
3:40
रसोई से बाहर आते वक़्त घडी पर नज़र डाली, पलट कर रसोई की चौखट पर खड़े होकर रोज़ की तरह रसोई में इक तेज़ नज़र दौड़ाई, पर आज शायद येः नज़र कुछ अलग थी
शायद वक़्त अलग था आज..
"कुछ रह तो नहीं गया"?
रसोई साफ़ थी, जैसे इस्तेमाल ही ना हुई हो, "सब ठीक है, कुछ नहीं रहा"
तसल्ली हुई, तो दरवाज़ा बंद कर ताला लगा कर, चाबी टेबल पर रखते हुए, घडी पर नज़र डाली
4:05
इक बार अलमारी भी देख लूँ, और अलमारी खोली, कुछ नहीं था, सभ रख लिया, अपना luggage तैयार कर कविता ने आईने के सामने खड़े होकर बालों में कंघी फेरते हुए सोचा..
'साल भार में कितनी बदल गई मैं, कितना कुछ देखा..जाना..क्या कुछ पाया..और कितना कुछ खोया'
जब आई थी लम्बे बालों की चोटी घुटनों को छूती थी, और आज येः छोटे बाल माँ देखेगी तो कहेगी, दिल्ली की हवा लग गई लल्ली को ..होठों पर इक मुस्कान आई और चली गई.
बालों में से आती महक ने याद दिला दी किसी की.
'कवी, मुझे तुम्हारे खुले बाल बहुत पसंद हैं, मेरे चेहरे पर इन बालों को बिखरा दो, और वक़्त को रोक लो'
इसी गुस्से में तो बाल कटवा दिए थे, जब उस से झगडा हुआ,
गौतम
कहते हैं प्यार ज़िन्दगी में इक ही बार होता है, दोबारा नहीं होता, शायद सही कहते हैं.
जनाब ने कहा प्यार है, तो कविता को जहां मिल गया, पर पहला प्यार भुलाये नहीं भूलता, अगर भूला जाता तो शायद गौतम अपने पहले प्यार को भूल जाता और कविता को सच्चे दिल से अपनाता, पर शायद येः हो नहीं सकता..
शायद इसी लिए, गौतम का हर बात पे कहना, कवी तुम उस जैसी कभी नहीं हो सकती..हालाकि गुस्से में कहता था, पर येः छोटी छोटी बातें बहुत चुभती थी..
मोहब्बत में इंसान कभी ख़ुशी से, अपनी मर्ज़ी से बदलता है तो सही, पर प्यार में सौदा नहीं होता.. प्यार तो बिना कुछ मांगे किया जाता है..
पर शायद गौतम ने उसे बदलने की कोशिश की उसकी मर्ज़ी के खिलाफ.. और जब प्यार बंदिश बन जाता है, तो इंसान छटपटाने लगता है,
साँस लेने के लिए.. जीने के लिए,
प्यार कितना ही गहरा हो, बंदिशें उसे कमजोर कर देती हैं.. शायद यही हुआ कविता के साथ.
मोहब्बत ने उसे बदल तो दिया, पर खुद सा नहीं रहने दिया. ऐसे करो, येः करो, येः मत करो, उस से मत मिलो, इस से बात मत करो.. इन सब से थक गई थी पर प्यार था तो निभाती रही, हर तरह से रिश्ते को..
पर कहते हैं
टूट के बिखर जाते हैं रिश्ते जब उन्हें ज़ंजीर नहीं मिलती.. ज़ंजीर नाम की.. मोहब्बत भी इक नाम मांगती है, जो उसके नसीब में नहीं था..
"कमाल है ज़िन्दगी"... कह कर कविता ने इक फीकी सी मुस्कान अपनी ही परछाई को आईने में दिखाई.. कंघी अपने पर्स में रखी.. और दराज़ खोल कर अपनी डायरी निकाली..
मोबाइल फ़ोन जेब में रखा, टेबल पर पड़ी चाबी उठाई.. तो कुछ ध्यान आया.. डायरी रख कर..
अपना बैग खोला..
एक लिफाफा और एक गिफ्ट पैक निकाला.. एक फ़ोन लगाया..
पाँच मिनट बाद एक लड़के ने दरवाज़े पर दस्तक दी, कविता ने उस लड़के को एक पर्ची कुछ पैसे और वो लिफाफा और गिफ्ट पैक दिए,
बदले में लड़के ने उसे एक रसीद दी और चला गया.
येः गिफ्ट था उसके सबसे प्यारे दोस्त विमल के लिए
विमल, शायद ही उस जैसा भगवान् ने कोई बनाया हो, या उसे बनाने के बाद खुद भगवान् ने अपने बाल नोच लिए होंगे और कहा होगा कि इस जैसा कोई नहीं बनाना अब कभी..
हाँ, ऐसा ही था वो, महापागल किस्म का लड़का था, नाराज़ होना उसे आता ही नहीं था, हर problem का हल होता था उसके पास, ज़िन्दगी को कैसे जीना है कोई उस से सीखे, कोई पास नहीं वो फिर भी खुश था, और जो उसके पास होते थे, वो तो खुश रहते ही थे, क्यूँ क्यूंकि वो था ही ऐसा.. पागल..!
'येः गिफ्ट जब तक उसे मिलेगा मैं बहुत दूर जा चुकी हूंगी' .. रसीद को देखते हुए कविता ने कहा, और रसीद बैग में रख, अपना सामान समेटा, दरवाज़ा बंद किया, और ताला लगा दिया.
बाहर टैक्सी उसका पहले से इंतज़ार कर रही थी.
सामान रख कर उसने पलट कर इक बार फिर से अपने कमरे को देखा, दरवाज़े पर लगा ताला जैसे छटपटा रहा था..
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स्टेशन पहुच कर सोचा कुछ किताबें खरीद ली जाये, और यही सोच कर कविता एक बुक शॉप में पहुची, कुछ किताबें पसंद कर काउंटर पर ले गई,
"355 रुपये मैडम ".. कृपया पैसे खुल्ले दीजियेगा ..
कविता ने 400 रुपये दुकानदार को दिए तो उसने अपनी बात दोहराई, पैसे खुल्ले दीजिये मैडम..

कविता ने अपना बैग दोबारा ठीक से देखा, सारी चिल्लर निकलने पर भी 40 रुपये निकले..
भैया, आप देखिये न आपके पास होंगे पैसे, उसने दुकानदार से कहा..
नहीं मैडम जी, होते तो आपको खामखा परेशान क्यूँ करता.. जवाब आया..
अच्छा तो फिर आप एक काम कीजिये रहने दीजिये, मैं कहीं और से किताबें ले लेती हूँ.. कह कर कविता किताबें वापिस दुकानदार को पकडाने लगी तो किसी ने हाथ पकड़ लिया,
विमल, यहाँ कैसे??
कविता को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ..
बाकी पैसे दुकानदार को दे कर विमल ने कविता का बैग उठाया, और उसका हाथ पकड़ कर उसे दूकान से बाहर ले आया..
तेरा दिमाग ठीक है, कहाँ जा रही है??
तेरा फ़ोन नहीं लग रहा था, नए साल की बधाई देने को फ़ोन किया था, तो मैंने आंटी को फ़ोन किया पता चला की तू स्टेशन आई है, वरना मैडम कहाँ गायब हो जाती पता भी नहीं चलता.. तू जा कहाँ रही है?
किस से भाग के जा रही है, हकीकत से, या खुद से.. या फिर किसी और से..??
येः भी कोई तरीका है ? न कुछ कहा, न बताया, बस अपना सामान उठाया और चल दी? सोचा भी है किसी के बारे में.. कैसा लगेगा तेरे दोस्तों को, संगम को, और मुझे..खैर मेरी तो बात ही जाने दे..पर बाकी लोगो का तो सोच??
सभी सवाल एक ही साँस में पूछ डाले, पहली बार उसे गुस्से में देख कर कविता को समझ ही नहीं आया कि कैसे और क्या जवाब दे..
बोल अब.. बोलेगी कुछ.. विमल ने गुस्से में कहा..
क्या करू.. अब यहाँ मेरा बचा क्या है??
सब कुछ है, अपनी पसंद की नौकरी है, दोस्त हैं, संगम.. भाई है तेरा, उसे पता है तू जा रही है?
नहीं..
रुक मैं उसे बताता हूँ
रहने दे, वो सो रहा होगा, कल उसका exam था, थक गया था, रात बात हुई थी मेरी..
तू पागल है क्या, ये क्या बात हुई..
सुन, पागलपन को ज़रा किनारे कर और मेरी बात सुन, मैं यहाँ आई थी बहुत से सपने लेकर.. इस शहर ने मुझे सब दिया, दोस्त, रिश्ते, प्यार, कामयाबी सब कुछ, .. अब मुझे किसी और चीज़ की ख्वाहिश नहीं है, और सबसे ज्यादा माँ को मेरी ज़रुरत है, अब वैसे भी यहाँ दिल नहीं लगता यारा, सो जा रही हूँ, घर पहुचेगा तो एक पार्सल मिलेगा तुझे, आज ही भेजा है, उसमें मेरा पता है, मुझे लिखते रहना.. तेरे सिवा मेरा बचा क्या है यहाँ.. कहते कहते कविता का गला भर आया, और आंसुओं को रोकने की कोशिश करते हुए मुस्कुराने लगी.
मुझे जाने दे विमल, मैंने यहाँ सब पाया और सब खो दिया, तू है तुझे खोने की हिम्मत नहीं है, इसी लिए जा रही हूँ ताकि ये रिश्ता यूँ ही खूबसूरत बना रहे.. जो मेरे पास बचा है मेरे लिए वही काफी है. तुम लोग मेरे जीवन की महक हो और..

ट्रेन ने स्टेशन में प्रवेश किया, तो दोनों का ध्यान भंग हुआ, कविता कहते कहते रुक गई.

अच्छा चलती हूँ..
कवि.. विमल से कुछ कहते न बना..
हाँ, अपना ध्यान रखना, और मुझे ख़त लिखना..
कविता ने अपना बैग उठाया और ट्रेन की और बढ़ चली..
विमल ट्रेन के बाहर खिड़की पर खडा रहा, ट्रेन चलने लगी
तू कुछ कह रही थी ना?
हाँ, मैं कह रही थी कि तुम लोग ..तुम सब.. मेरे जीवन की महक हो, और महक को कोई पकड़ नहीं सकता.., जब तक उसे जिया.. जी लिया..अब जाती हूँ दोस्त, अपना ख्याल रखना..
विमल से कुछ कहते न बना, कविता चली गई और विमल उसे जाते देर तक देखता रहा. !

() दिपाली सांगवान "आब"
 
मेरा परिचय :
दिपाली सांगवान "आब"
जन्म तिथि: 16 सितम्बर.
जन्म स्थान: नई दिल्ली
शिक्षा: स्नातक ( कॉमर्स ), डिप्लोमा -फैशन डिजाइनिंग.
प्रकाशित रचनायें: हिन्दयुग्म, हिंदी कुंज तथा अरगला में रचनाएँ प्रकाशित .
अभिरूचियाँ: चित्रकारिता, कवितायें पढना और लिखना, तथा कहानी लेखन.
वेबसाईट: www.khoosuratzindagi.blogspot.com
आत्मकथ्य: परिवार में साहित्यिक माहौल शुरू से रहा, और बचपन से ही कविताएँ पढ़ने अथवा लिखने का शौक रहा, पिछले कुछ सालों से येः शौक एक जूनून बन गया, और कविता मेरा प्रेम.
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16 comments:

  1. रिश्तों की खुशबू के लिए
    चलो दूर हो जाते हैं

    बहुत ही सुन्‍दर एवं रोचकता के साथ इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये आभार ...दिपाली जी को बधाई ।

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  2. रिश्तो की महक ज़िन्दगी भर साथ साथ चलती है।

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  3. सुन्दर कोमल एहसासों से भरे कहानी के लिए दीपाली जी को बधाई !

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  4. सुन्दर भावनात्मक कहानी..
    दीपाली जी को बधाई और आपको भी आभार सभी के साथ बांटने के लिए..

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  5. रिश्ते को..
    पर कहते हैं
    टूट के बिखर जाते हैं रिश्ते जब उन्हें ज़ंजीर नहीं मिलती.. ज़ंजीर नाम की.. मोहब्बत भी इक नाम मांगती है, जो उसके नसीब में नहीं था..
    "कमाल है ज़िन्दगी"... कह कर कविता ने इक फीकी सी मुस्कान अपनी ही परछाई को आईने में दिखाई.. कंघी अपने पर्स में रखी.. और दराज़ खोल कर अपनी डायरी निकाली.....
    ....बहुत उम्दा कहानी... दीपाली जी को हार्दिक बधाई..
    प्रस्तुति के लिए आभार

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  6. सुन्दर मन को छूने वाली कहानी ।

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  7. shukriya rashmi dii..
    Kahani ko samman dene ke liye..

    Sabhi paathakon ko dhanyawaad :)

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  8. खुशबू जैसे रिश्ते ...
    इनकी महक बनाये रखने के लिए कभी कभी दूर भी जाना होता है ...
    अच्छी कहानी ...
    चलो इस खुशबू के दूर हो जाए ...मन को छू गयी !

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  9. सुन्दर कथा है!
    इसे प्रिंट मीडिया में भी आना चाहिए!

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  10. अच्छी कहानी .. आपकी यह कहानी और आपकी एक कविता मैंने आज चर्चामंच में रखी है... आपका आभार ..

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