बीते हुए पल
किस कदर साथ साथ चलते हैं
आज कितना भी सुहाना हो
पर वो बचपन .... वो लड़ाई
याद आते ही दिल मचल जाये ...
रश्मि प्रभा
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बहुत लड़ता था तुझसे!
पतीले भर दूध का बड़ा टुकड़ा
किसे मिले,
सेवैय्यों की बड़ी लड़ी
किसके हिस्से जाए,
राशन के साथ मुफ़्त में नसीब हुए
कुछ नेमचुस (लेमनचुस)
बँटे तो कैसे,
"घुरा" पर आग तापते वक़्त
पापा के लिए "पीढा"
कौन लाने जाए?
तेरी जिद्द से हारकर
मैं हीं ले आता था,
लेकिन लड़ता ज़रूर था
और हाँ, डाँटता भी था,
"बड़ा जो हूँ,
इतना हक़ तो बनता है,"
बस यही सोचता था हर बार
और डपट देता था तुझे।
तू गुस्साती थी,
"सोणे" चाँद जैसे मुखरे को
फुलाकर "सूरज" बन जाती थी.. लाल-लाल.. सुनहरा
और सिमट जाती थी खुद में हीं..
मैं "डरपोक"
कभी भी मना न पाया तुझे,
हर बार माँ से कहकर
तुझे तेरे "कवच" से निकलवाकर बाहर मंगाता था
और फिर से
लड़ बैठता था।
सब कहते थे-
"एक पीठ पर के बच्चे हैं"
तो नोंक-झोंक होगी हीं,
लेकिन हमारे लिए यह
कुछ और हीं था,
मेरा खाना नहीं पचता था
तेरी हर बात को काटे बिना
शायद!
और तू?
तू अपने मन की मुराद
कह नहीं पाती थी खुल के
और मैं या शायद सभी
तुझे घमंडी मान बैठे थे,
इसलिए तू गुस्सा होती थी और बाकी सब
नाराज!
यही चलता रहा
और फिर एक दिन
तेरी डोली सज गई।
तू बन-सँवरके बैठी थी
गोटीदार लहँगे में,
शर्माई-सी, सकुचाई-सी
और चुटकी भर परेशान..
मैं कमरे में जाता,
तुझे मुझ पर तकता पाता
और "अवाक" रह जाता।
क्या बोलूँ मैं?
कैसे बोलूँ मैं?
कैसे लड़ूँ मैं?
यही सोचता हुआ
निकल आता मैं बाहर।
सच्ची
मैं पूरे दो दिन तक
चुप हीं रहा... सच्ची!
भैया!
जब मैं पूरी ताकत से
तुझे ठेल रहा था
किसी और की हथेली में
और खुलने हीं वाला था अपना रिश्ता
नोंक-झोंक वाला..
तूने पूरे ज़ोर से यही पुकार लगाई थी
"नहीं भैया"
और मैं "काठ"-सा हो गया था पल भर को..
सबकी आँखें नम थीं,
लेकिन मैं "निर्मोही" तब भी
एक बूँद न ठेल पाया आँखों से..
मैं "कसाई"!
तेरे जाने के बाद
मैं ढूँढता रहा "उसे"
जिसकी हर बात पर मैं
कसता था फिकरे,
लेकिन आह!
मुझे कोई न मिला
और तब सच्ची
मेरी आँखों से "गंगा" निकल आई।
तब जाना मैंने
तू क्या थी,
पूरे बाईस-तेईस साल
मैंने क्या खोया था
और अब क्या खो दिया है
किसी "खास" के हाथों!
तब से आज तक
प्रायश्चित हीं करता रहा हूँ,
उस "ऊपर वाले" से हर पल
माँगता था.. वो बीते हुए दिन!
और आज
"नए पैकेट" में मुझे पुराने लम्हे
अता कर दिए उसने!
आज एक पीढी ऊपर हो गया मैं!
सुबह-सुबह ढलते चाँद
और जगते सूरज ने मुझे ख़बर दी
कि
मेरी "मुँह फुलाने वाली" भगिनी (संस्कृत की)
ने मुझे भगिनी (भांजी) का तोहफ़ा दिया है..
इस बार गलती नहीं करूँगा..
इस बार जी भरकर लड़ूँगा अपनी भगिनी से
लेकिन हर बार हारूँगा
जान-बूझकर
सच्ची!
बहुत लड़ा था तुझसे,
अब इसकी बारी है.. हाहा!
बहन भाई के रिश्ते के पवित्र, निश्छल और निःस्वार्थ प्रेम और समर्पण को क्या खूब भावुक शब्दों से व्यक्त किया गया है.. कविता आपने कही, पर हर पाठक के मन तक उतर बहन-भाई के इस पवित्र रिश्ते को फिर से तरोताजा करने की क्षमता रखती है ये पंक्तियाँ. बहन की याद से तर गई.. बहुत भावुक हो गया पढ़ते-पढ़ते. ऐसे लगा जैसे मैं स्वयं कह रहा हूँ ये कविता. शुक्रिया दीपक जी ! आपका दिल से आभार ! रश्मि दी को इस कविता के चयन के लिए कोटि-कोटि साधुवाद और नमन !
ReplyDeleteसुन्दर शब्दों से सजी यह भावमय अभिव्यक्ति लाजवाब ...।
ReplyDeleteखूबसूरत..
ReplyDeleteभाई-बहन के रिश्ते की गहराई आंकता यह पंक्तियों का रेला.. बहुत ही सुन्दर लिखा है..
आभार
लाजवाब अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteअत्यंत भावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआंखें नम कर गई .
लाजवाब ! मैं स्तब्ध हूँ !
ReplyDeleteबहन भाई के निश्छल प्यार को बहुत खूबसूरती से उकेरा है..बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति.
ReplyDeleteभावुक कर दिया इस कविता ने।
ReplyDeleteभाई बहन के रिश्ते की इतनी सुन्दर प्रस्तुति मन को भावुक कर गयी।
ReplyDeleteरचना पसंद करने के लिए सभी मित्रों का बहुत-बहुत धन्यवाद!
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