कभी तो समझो इस इंतज़ार को
कभी तो ...
पूरा दिन गुज़रता है एक आवाज़ के लिए
हाँ तुमसे कुछ सुनने के लिए ....
हाउस वाइफ
फोन.. शांत,
कोने में .. एकांत,
तुम्हारा स्वर आए
तरसती हूं
दिनभर।
करती हूं इंतज़ार
शाम का,
घर आओगे
जी भर तुझसे बतियाऊंगी
हां, उस एक क्षण की
सुख-शांति के लिए
करती हूं
दिन-भर
तुम्हारा इंतज़ार
इस घर की चहारदीवारी
मनहूस-सी लगती मुझे
इसके बाहर भी तो है संसार
ले जाओगे मुझे
मोतीझील,
धर्मशाला,
चौक कल्याणी,
कहीं भी ...
कहीं भी ....
करती हूं इंतज़ार।
आते हो थके से ,
पर शांत फोन
अचानक ही
घनघना जाता है
और तुम
हो जाते हो व्यस्त
दिन भर का
मेरा इंतज़ार
रह जाता है इंतज़ार
और मन
हो जाता है त्रस्त .
मनोज कुमार,
09831841741
ए मौला ज़्यादा नहीं , दे कुछ तो औक़ात
सर को ऊँचा कर सकूँ , मैं मानुष की जात
कभी तो समझो इस इंतज़ार को
ReplyDeleteकभी तो ...
पूरा दिन गुज़रता है एक आवाज़ के लिए
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ..इस बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिये आभार ।
स्त्री मनोभावों का बेहतरीन विश्लेषण किया है इस कविता मे…………सार्थक रचना।
ReplyDeleteपुरुष होकर स्त्री मनोदशा का चित्रण करना बहुत मुश्किल होता है परन्तु मनोज जी ने बेहद खूबसूरती से स्त्री मानोभावों को उकेरा है. साधुवाद ! नमन !
ReplyDeleteबहुत ही सटिक चित्रण किया है आज के परिवेश में.........बहुत सुंदर
ReplyDeleteमनोज जी कभी किसी कवि ने इतनी सहजता से गृहणी के मनोभावों को नहीं पढ़ा होगा... सुन्दर कविता..
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteये कविता तो मुझे अच्छी तरह याद थी...यहाँ पढना भी अच्छा लगा !
ReplyDeleteमोतीझील,
ReplyDeleteधर्मशाला,
चौक कल्याणी
मुज़फ़्फ़रपुर की याद आ गई। खूबसूरत कविता। बधाई स्वीकारें।
aaw...!
ReplyDeletesach.. sundar aur sateek!
perfect.
@ विश्व दीपक जी,
ReplyDeleteहम कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई या मुम्बई में रहें, प्रतीक तो अपनी धरती के ही याद आते हैं।
व्यस्त पति की पत्नी की त्रासदी खूब बयाँ की है आपने...बधाई
ReplyDeleteनीरज
shayad yeh har ghar ki cyatha katha hai... behtarin prastuti...
ReplyDeleteek gahrelu stri ki mano dasha ka sajeev chitran
ReplyDeletewah bhai wah!
हाउस वाइफ का दर्द वाकई बहुत शिद्दत से प्रस्तुत किया है और इसको वही बयान कर सकता है जो झेल रहा है. लेकिन मनोज जी आपने प्रस्तुत किया - तब तो सोचना पड़ेगा कि ये कैसे हुआ?
ReplyDeleteवाह जी, एक हसबंड एक वाइफ के दर्द को इतनी अच्छी तरह पेश करेगा ये तो वाकई काबीले तारीफ है ...
ReplyDeleteकितना सरल, सच्चा ,सीधा और सुन्दर बिम्ब प्रतिबिम्बित किया है, मनोज जी आपने। वाह!
ReplyDeletesatya ke qareeb
ReplyDelete.
ज़रा सोंच के देखें क्या हम सच मैं इतने बेवकूफ हैं
एक हाउस वाइफ की मनोदशा ....उसकी आशाओं..आकांक्षाओं और निराश मन का बड़ी संजीदगी और कुशलता से चित्रण किया है...
ReplyDeleteयह इंतज़ार भी क्या गज़ब चीज़ है..
ReplyDeleteपर मोबाइल ने अपना ये नकारात्मक पहलु काफी गहरा छोड़ा है..
सुन्दर अभिव्यक्ति...
एक हाउस वाइफ कि मनोदशा को बहुत बारीखी से लिखा है |बधाई
ReplyDeleteआशा
मनोज जी की रचना में उनके ब्लॉग पर पढ़ चुकी थी... परन्तु आपके शब्दों ने उसे सारांश दे दिया...
ReplyDeleteसच , मनोज जी ने बहुत ही अच्छी तरह से पत्नी की मनोदशा का वर्णन किया है। सुन्दर प्रस्तुति।
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