वर्षों से संजोया
तिनका-तिनका अपनी आँखों से बरसते नेह का
बनाया एक अदृश्य घर...
तुमने देखा तो होगा
बरसते नेह की मजबूत दीवारों को
पहचाना तो होगा ............
दिन बिता शाम हुई
शेष है रात
मेरे साथ कुछ भी तो नहीं हरि
अब क्या सोचना !
रात के इस शेष प्रहर में
जहाँ मोह की बुलंद दीवारों ने
अपने बुलंद दरवाज़े बन्द कर दिए हैं
इस घर में आ जाओ
यहाँ तो जो कुछ है
तुम्हारा है ....
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इंतज़ार करना ...................
क्योंकि मैं कृष्ण नहीं
एक साधारण राही था
एक बियाबां था मेरे आगे...
बिना कुछ सोचे समझे
उसे पार करने को विवश
मैं चलता जा रहा था !
बीच बीच में मुड़कर देखता था -
तुम्हारे घर का धुंधला पड़ता दरवाज़ा
मन कहता था -
आँखों की राह उसे मन में उतार लो
जिसे देखने को बार बार मुड़ते हो !
दरवाज़े के बीचोबीच
चित्रलिखित सी तुम खड़ी थी ...
लगता था विशाल फ्रेम में जडी कोई प्रतिमा
तब मुझे तुम सुर की राधा लगी थी !
हमारे तुम्हारे बीच क्या था
यह अनसुलझा ही रहा
पर मन कहता था -
आसक्ति की एक रेशमी डोर हमें बाँध रही थी
भले ही हम इस बंधन से अनजान थे
पर साँसों की लय इस बंधन को
संगीत में उतार रही थी !
बियाबां ख़त्म होने को आया
तो मैं मुड़ा
देर तक आँखें मलता उधर देखता रहा -
तुम्हारे घर का दरवाज़ा और वहाँ खड़ी तुम
सबकुछ ओझल हो चुका था ...
बड़ी प्यास लगी
और आँखों की कोर से पानी निकला
मैंने सूखते गले में घूंट भारी
और अपनेआप से कह उठा ...
इंतज़ार करना अनुराधा
मैं लौट आऊंगा !
सरस्वती प्रसाद
यहाँ तो जो कुछ है
ReplyDeleteतुम्हारा है ....
!!!!!
Pranaam Ammaa...Ilu
ReplyDeleteवाह! क्या खूब अभिव्यक्ति है…………बेहद सुन्दर रचना।
ReplyDeleteमैं गोकुळ से मथुरा नहीं जा रहा था
ReplyDeleteक्योंकि मैं कृष्ण नहीं
एक साधारण राही था
***
प्रेम की अथाह संवेदना को चंद पंक्तियों में कितनी सफलतापूर्वक व्यक्त कर दिया आपने सम्मानिया सरस्वती जी. मेरा प्रेम कृष्ण की तरह है पर मैं कृष्ण नहीं जो विछोह से विचलित न होऊं और लौट कर ही न आऊं. मेरा प्रेम अलौकिक है मगर मैं अलौकिक नहीं कृष्ण की तरह. मेरा प्रेम अलौकिक न होकर भी राधा की तरह है. आसक्ति की एक रेशमी डोर मुझे अब भी बांधे है. इस विरह बियाँबान में मेरे गले की तरह सबकुछ सूख चुका है, नहीं सूखा तो मेरी आँखों में आसक्ति का पानी. आपकी ये कविता प्रेम के साधारण स्वरुप को भी राधा-कृष्ण के प्रेम से एकाकार कर रही है. कृष्ण होकर भी मेरा प्रेम राधा की तरह निर्मल और निश्छल है, कृष्ण की तरह कठोर नहीं जो लौटकर न आ सके.. भी पुनः लौट आऊंगा.
ओह्ह ! क्या नहीं है इस कविता में ! करुणा, आर्द्र सम्प्रेषण, चित्रात्मकता के साथ-साथ प्रेम के स्वरुप को कितना उत्तुंग शिखर पर रखा है आपने. संवेदना अपनी पराकाष्ठा तक व्यक्त हो रही है मन पढ़ते-पढ़ते चित्रवत ठहर गया एक पल को 'उसी' के साथ, आशा की डोर मुझे अब भी बांधे है लौट आने को फिर से यहीं पर, बहने तुम्हारे साथ. इंतज़ार करूँगा सम्मानिया सरस्वती जी की ऐसी ही भाव विभोर कर देने वाली कई और कविताओं के साक्षात्कार का ! बस... नमन, नमन, नमन ! आदरणीया रश्मि दी, आपका आभार कहकर आपके इस स्तुत्य कर्म को छोटा नहीं करूँगा.. बस इतना ही कह पाऊंगा कि नतमस्तक हूँ. प्रणाम !
तन्मयता में शब्दों को करीने से नहीं पिरो पाया..अनुभूति को हूबहू उतार दिया.. क्षमा !
बेहतरीन अभिव्यक्ति!
ReplyDeletebahut sundar abhivyakti
ReplyDeleteभावोमय अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteएक निवेदन-
मैं वृक्ष हूँ। वही वृक्ष, जो मार्ग की शोभा बढ़ाता है, पथिकों को गर्मी से राहत देता है तथा सभी प्राणियों के लिये प्राणवायु का संचार करता है। वर्तमान में हमारे समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित है। हमारी अनेक प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं तथा अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। दैनंदिन हमारी संख्या घटती जा रही है। हम मानवता के अभिन्न मित्र हैं। मात्र मानव ही नहीं अपितु समस्त पर्यावरण प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः मुझसे सम्बद्ध है। चूंकि आप मानव हैं, इस धरा पर अवस्थित सबसे बुद्धिमान् प्राणी हैं, अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि हमारी रक्षा के लिये, हमारी प्रजातियों के संवर्द्धन, पुष्पन, पल्लवन एवं संरक्षण के लिये एक कदम बढ़ायें। वृक्षारोपण करें। प्रत्येक मांगलिक अवसर यथा जन्मदिन, विवाह, सन्तानप्राप्ति आदि पर एक वृक्ष अवश्य रोपें तथा उसकी देखभाल करें। एक-एक पग से मार्ग बनता है, एक-एक वृक्ष से वन, एक-एक बिन्दु से सागर, अतः आपका एक कदम हमारे संरक्षण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है।
दोनों कवितायें बहुत ही भावपूर्ण हैं।
ReplyDeleteपन्त जी ने आपको अच्छा नाम दिया ै.....................आप उस नाम को चरितार्थ कर रहीं हैं............हमारीशुभकामनायें आपके साथ है।
दिल की गहराईयों को छूने वाली खूबसूरत और भावमयी प्रस्तुति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
bhauk kaveeta.
ReplyDeleteबड़ी प्यास लगी
ReplyDeleteऔर आँखों की कोर से पानी निकला
मैंने सूखते गले में घूंट भारी
और अपनेआप से कह उठा ...
इंतज़ार करना अनुराधा
मैं लौट आऊंगा !
ekdam bhawnaon ki parakashtha hai yah kavita.....wah aur rashmijee apke liye to jitna kahoon kam hai.
bahut khoobsurat likhi hain.
यहाँ तो जो कुछ है तुम्हारा है ....
ReplyDeleteइंतज़ार करना अनुराधा ..मैं लौट आऊंगा ...
क्या कहना है ...क्या सुनना है !
जन्मदिन का यह तोहफा अनमोल था इसलिए ही इतनी देर से खुला ...
बहुत बधाई !
दोनो ही बहुत सुन्दर रचनाएं है ।
ReplyDeleteरश्मि जी आपको जन्म दिन की हार्दिक बधाई ।
KRISHN Bhakti ya kisi bhi ishwar se judi unki bhakto ki battein sun ke akkhein anayas hi barasne lagti hai,
ReplyDeletebehad sunder prastuti
बहुत सुन्दर भाव ...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भावमय करते शब्दों का संगम है इस अभिव्यक्ति में ।
ReplyDeleteनमनीय रचना...
ReplyDeleteसादर...
अलौकिक प्रेम की आत्मानुभूति से स्पर्श कराती अत्युत्तम भक्ति भावमयी अभिव्यक्ति...कोटि कोटि नमन !!!
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