आंसू हर पल आंखों में नहीं तैरते,
लम्हा-दर-लम्हा -
जब्त हो जाते हैं,
विरोध का तेज बन जाते हैं.........
तुमने अपनी गरिमा में,
आंसुओं को बेमानी बना डाला,
अच्छा किया,
मैं वक्त की नजाकत का पाठ ,
भला कैसे सीख पाती!
तुमने मेरे वजूद की रक्षा में
ख़ुद को दाव पर नहीं लगाया ,
अच्छा किया,
मैं अपनी ज़मीन कहाँ ढूँढ पाती !
तुमने मेरे प्रलाप में चुप्पी साध ली,
अच्छा किया,
मैं पर्वत-सी गंभीरता कैसे ला पाती!
तुमने जो भी किया,
अच्छा किया,
मैं तुम्हारे पीछे भागना कैसे छोड़ पाती!


() रश्मि प्रभा





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या देवी सर्वभूतेषु दृष्‍टि‍ रूपेण संस्‍थि‍ता



इससे पहले कि तुम
मेरे आगे दोस्ती का दाना डालो
फिर प्रेम के रोने रोओ
और फिर
शादी के कागजों पर अंगूठा लगवाओ
तुम्हें जानना चाहिये
मैं तुम्हारी
सुबह की ताजा और गर्मा-गर्म
बेड-टी नहीं हूं
इसी तरह
वक्त पर
दोपहर, और रात का भोजन भी नहीं।
मैं वो कम्प्यूटराईज्ड मशीन नहीं हूं
जिसमें तुमने अपनी पसंद के
सारे शेड्यूल फीड कर रखे हैं
और वो मशीन
तुम्हें कपड़े, जूते, मोजे तुरन्त देगी
टूटे बटन टांक देगी
तुम्हारी मर्दानगी के सुबूत
बच्चे पैदा करेगी
पालेगी उन्हें तुम्हारे हिसाब से
मैं तुम्हारी वो जागीर नहीं हूं
जिसके रूप और समझदारी पर इतराते फिरो
कार में बगल वाली सीट पर सजाते फिरो।
जिसे तुम दोस्तों को दिखाते फिरो
मैं तुम्हारी शाम का रोमांस नहीं हूं।
मैं तुम्हारी रात का बिस्तर नहीं हूं।
मैं तुम्हारे वासनाओं की खूंटी नहीं हूं
कि कभी जींस, कभी स्कर्ट, कभी साड़ी
मुझ पर हर तरह के कपड़े टंगे रहें
जो तुमने फिल्मी हिरोइनों पर देखे हों, पसंद हों।
मैं जिम की वो मशीन नहीं
जिस पर
तुम वात्सयायन की नीली सीडियों में
रक्तचाप और बेहोशी बढ़ाती
उत्तेजक मुद्राएं आजमाओ।
तुम जिसके सपने देखते हो
मैं वो महिला आरक्षण भी नहीं
कि मैं सारे कामों के साथ
नौकरी भी करूं
इंतजाम करूं
तुम्हारे मोबाईल, टीवी, इंटनेट, कार के लिए पेट्रोल का
बच्चों के साथ सैर सपाटों का
मैं वो आधुनिक महिला नहीं
जो तुम्हारा अहसान माने
कि तुमने बिना कुछ किये
उसे आधुनिक होने दिया
और घर के साथ ही किसी दफ्तर और
दुनियां भर की जिम्मेदारियां, मगजमारियां दे दी।
मैंने पढ़ा सुना है
लक्ष्मी, शिवानी, ब्रम्हाणी के बारे में
गार्गी, मैत्रैयी, झांसी की रानी के बारे में
अगर तुमने भी सुना हो....
अगर किसी पूर्णता की तलाश में हो तुम भी
तो दो और
जीती जागती आंखों की सामर्थ्‍य की तरह
मुझे भी साथ ले चलो।
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()राजे शा
http://rajey.blogspot.com/

10 comments:

  1. राजे शा जी
    गज़ब की बेहतरीन रचना के लिये हार्दिक बधाई स्वीकार करें…………मेरे पास तो शब्द भी खामोश हो जाते हैं जब कभी भी कहीं भी ऐसी रचना पढती हूँ…………स्त्री मन को समझने और प्रस्तुत करने के लिये आपका नज़रिया शानदार रहा।

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  2. अगर किसी पूर्णता की तलाश में हो तुम भी
    तो दो और
    जीती जागती आंखों की सामर्थ्‍य की तरह ...

    प्रस्‍तुत दोनों रचनाओं में गहन शब्‍दों के भाव ... लाजवाब प्रस्‍तुति ।

    तुमने अपनी गरिमा में,
    आंसुओं को बेमानी बना डाला,

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  3. रश्मि जी
    आपने जो लिखा आज वो काबिल-ए-तारीफ़ है……आपका लिखा भी साथ पढने को मिल जाता है ये एक सुखद अनुभूति है।

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  4. अच्छा किया,
    मैं पर्वत-सी गंभीरता कैसे ला पाती!
    तुमने जो भी किया,
    अच्छा किया,
    मैं तुम्हारे पीछे भागना कैसे छोड़ पाती

    रश्मि जी -बहुत गहरी बातें हैं कविता में -
    सागर से भी गहरी जान पड़ती है आपकी कविता.
    अति उत्तम .

    अगर किसी पूर्णता की तलाश में हो तुम भी
    तो दो और
    जीती जागती आंखों की सामर्थ्‍य की तरह
    मुझे भी साथ ले चलो।


    !सुंदर उद्घोष
    बधाई

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  5. बहुत सुन्दर भाव लिए रचना |ह्यादिक बधाई स्वीकार करें
    आशा

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  6. मैं पर्वत-सी गंभीरता कैसे ला पाती!
    तुमने जो भी किया,
    अच्छा किया,
    ekdam man ke layak.ekdam dil se nikli hui....

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  7. अगर किसी पूर्णता की तलाश में हो तुम भी
    तो दो और
    जीती जागती आंखों की सामर्थ्‍य की तरह
    मुझे भी साथ ले चलो।
    jeetee-jagtee bhavon se paripurn pangtiyan....

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  8. प्रभावशाली कविता..

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