महत्वाकांक्षा उड़ान देती है
असीमित प्रतिस्पर्धा हार का सबब बन जाती है
पतंग की नियति
पतंग, उँचा आसमान छूने के लिये अधीर। दूसरी पतंगो को मनमौज से झूमती
इठलाती देखकर बेताब। किन्तु एक अनुशासन की डोर से बंधी हुई। सधे आधार से
उडती-लहराती, फ़िर भी परेशान। आसमान तो अभी और शेष है। शीतल पवन के
होते भी, अन्य पतंगो का नृत्य देख उपजी ईर्ष्या, उसे झुलसा रही थी। श्रेय की
अदम्य लालसा और दूसरो से उँचाई पाने की महत्वाकांक्षा ने उसे बेकरार कर
रखा था। स्वयं को तर्क देती, हाँ! ‘प्रतिस्पृदा उन्नति के लिये आवश्यक है’।
किन्तु, उफ्फ!! यह डोर बंधन!! डोर उसकी स्वतंत्रता में बाधक थी। अपनी
महत्वाकांक्षा पूर्ति के लिए, वह दूसरी पतंगो की डोर से संघर्ष करने लगी। इस
घर्षण में उसे भी अतीव आनंद आने लगा। अब तो वह डोर से मुक्ति चाहती थी ।
अनंत आकाश में स्वच्छंद विचरण करना चाहती थी।
निरंतर घर्षण से डोर कटते ही, वह स्वतंत्र हो गई। सूत्रभंग के झटके ने उसे
उंचाई की ओर धकेला, वह प्रसन्न हो गई। किन्तु यह क्या? वह उँचाई क्षण
मात्र की थी। अब स्वतः उपर उठने के प्रयत्न विफल हो रहे थे। निराधार डोलती
हुई नीचे गिर रही थी। सांसे हलक में अटक गई थी, नीचे गहरा गर्त, बडा डरावना
भासित हो रहा था। उसे डोर को पुनः पाने की इच्छा जगी, किन्तु देर हो चुकी थी,
डोर उसकी दृष्टि से ओझल हो चुकी थी। अन्तत: धरती पर गिर कर धूल धूसरित
हो गई, पतंग।
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सार्थक पुरूषार्थ
जो सोते है उनकी किस्मत भी सोती है
श्रम से ही तो कल्पना साकार होती है
बंद कर बैठे रहे जो सारी खिड़कियां
भरी दोपहर उन घरो में रात होती है
रोशनी मांगने से उधार नहीं मिलती।
बैठे रहने से जीत या हार नहीं मिलती।
असफलताओ से निराश क्या होना?
पतझड के आए बिन बहार नहीं खिलती।
सपनो में खोना, छूना परछाई होता है।
पुरूषार्थ भरा जीवन ही सच्चाई होता है।
सोते हुओं की नाप लो तुम मात्र लम्बाई,
जगे हुओं का नाप सदैव उँचाई होता है॥
- हंसराज 'सुज्ञ'
- निवास : गिरगांव,मुंबईव्यवसाय : आयात-निर्यात व्यापारलेखन : शौकिया, (विस्मृत इच्छा की पूर्ति का प्रयास)साहित्य योगदान : शून्य, (अभिव्यक्ति के लिये ब्लॉगिंग जैसा सरल माध्यम
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- मेरा मुख्य ब्लॉग :
सोते हुओं की नाप लो तुम मात्र लम्बाई,
ReplyDeleteजगे हुओं का नाप सदैव उँचाई होता है॥
वाह ...बहुत खूब कहा है आपने इन पंक्तियों में ...रश्मि दी इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आपका आभार ।
क्या भाव है कविता में
ReplyDeleteयहाँ पतंग को में आज के युवाओ से तुलना करूं और डोर को सामाजिक बंधन से तो क्या अर्थ निकल कर आता है कविता का, आनंद आ गया सच में
महत्वाकांक्षा उड़ान देती है
ReplyDeleteअसीमित प्रतिस्पर्धा हार का सबब बन जाती है
ekdam sahi baat hai aapki .....
बंद कर बैठे रहे जो सारी खिड़कियां
ReplyDeleteभरी दोपहर उन घरो में रात होती है
रोशनी मांगने से उधार नहीं मिलती।
बैठे रहने से जीत या हार नहीं मिलती।
itni achchi linen padhkar man khush hi gaya.
महत्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा , दोनों का फर्क बहुत स्पष्ट हुआ ..महत्वाकांक्षा आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है , प्रतिस्पर्धा सिर्फ जलन , क्षोभ ..
ReplyDeleteअच्छी प्रेरणास्पद कथा ...
कविता भी सार्थक सन्देश दे रही है !
kya kahne hain...sach me har pankti bejor :)
ReplyDeletebahut sundar abhivyakti ... bahut sundar bhaav.... aik sundar post ko sajha kiya .. aapka abhaar rashmi ji........aur Hansraj ji ko badhai aur dhanyvaad
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