स्त्री ... चिरकाल से प्रतीक्षित है
अपनी पहचान के लिए
दौड़ती जा रही है ---- पथरीली ज़मीन से आकाश तक ....
स्त्री को इस तरह भागना क्यों पड़ता है ?
सन १९८३ की बात है .उसकी उम्र थी २० या हद से हद २१ वर्ष .भरी हुई देहयष्टि और भरपूर आकर्षण की कही कोई कमी नहीं.! उसका नाम बबिता था! दो साल विवाह को हुए थे ! तब मायके में रह रही थी! वह किसी खौफनाक रात के सन्नाटे में अपनी ससुराल से भाग आई थी .यह सब कुछ उसने खुद ही एक दिन बताया था .यूँ तो गौर करने पर उसकी पानीदार आँखें ऐसा ही कुछ बयां भी करती थीं .कई बार उसको उसकी सास के जान से मारने की कोशिशों ने उसे इस कदर खौफ में डाल दिया था कि वह सारी नसीहतें सारी ज़जीरें सारी मर्यादाएं औए सारे संस्कार तहस- नहस कर सिर्फ अपनी जान लेकर भागी थी .एक ऐसे घर से भागना जहाँ के दरवाजों गलियारों से उससे कोई परिचय नहीं था और जहाँ वह पहली बार गयी थी दुस्साहस का काम था ! यदि उसके प्राण उसकी प्रथम प्राथमिकता न होते तो एक नववधू के लिए रात के सन्नाटे में घर के बाहरी दरवाजों की चाभी भाग जाने के लिए सहेजना कोई आसान काम तो नहीं था...उसको आज भी मेरा मन सलाम करता है ..मैं बार बार सोचती हूँ कि स्त्री और पुरुष की इस दुनिया में स्त्री को इस तरह भागना क्यों पड़ता है ?
प्रज्ञा पांडेय
नितांत अपने उगाये समय में !
आँगन से होकर भोर निकल आई जैसे दुआर तक !
तुम भी क्यों नहीं निकल आती हों उसी तरह
और किरणों की तरह करती हो सुनहरी बारिश जिसमें दब जाए धूल गर्द जो परम्पराओं के जुलूस के साथ उठती रही है !
महावरों में रची है जब भाग्य रेखा.तब . क्यों नहीं उचक कर तोड़ लेती हों तुम अपने हिस्से का ब्रह्माण्ड
जो रोज़ तुम्हारे आँगन में झांकता है !
जब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों दहलीज पर खड़े रिवाज !
क्यों नहीं बो लेती हो धान के साथ समय जो
लहलहाए और तुम्हारा हो !
गावं के मुहाने से होकर निकल आओ और
अपने आकाश गंगीय किनारों पर .
रोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हें
जब तुम रोप रही होगी अपने सपने रजनी गंधl
,बेला , हरसिंगार नीले नीले खुले आकाश में !
नितांत अपने उगाये समय में !
अपने से बात करना कितना सुखद और उर्जावान होता है,यह इस कविता को पढ़कर जाना जा सकता है।
ReplyDeleteहमेशा स्त्री ही क्यों भागती है ...
ReplyDeleteरोप लो अपने इन्द्रधनुष कौन रोकेगा तुम्हे !
दर्द और दवा एक साथ !
har dukh ya taklif sirf stri tak seemit nahi hai...mai aapse umeed karuga ki aap purush ke upar bhi kuch likhe
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteमुझे भी याद आया की अपनी क्यारियों में पानी देना है...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचनाएँ...
हमेशा स्त्री ही क्यों भागती है ..
ReplyDeletebehtreen
..
क्यों नहीं उचक कर तोड़ लेती हों तुम अपने हिस्से का ब्रह्माण्ड
ReplyDeleteजो रोज़ तुम्हारे आँगन में झांकता है !
बहुत सुन्दर और दिल को छूने वाली रचना ! कितना दर्द समेटा होगा दिलने और तब ऐसी बातें निकली होगी ...
bhaawpurna rachna.........sunder
ReplyDeleteप्रज्ञा जी आपकी यह कविता पहले भी आपके ब्लॉग पर पढ़ चूका हूँ... अच्छा लगा फिर से इसे पढना.. उद्वेलित करती है यह कविता...
ReplyDeleteविचारणीय तथ्यों को उठती कविता ..... बहुत सशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजब बुहारती हो तुम दुआर तभी क्यों नहीं बुहार देती हों दहलीज पर खड़े रिवाज !
ReplyDeleteनारी जीवन के गहन प्रश्नों को उठाती एक सशक्त रचना..
अंतर्मन में हलचल मचाती अंतर्मन को भिगोती उत्कृष्ट रचना |
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