यूँ हीं तुमने हमें गुनहगार बना दिया
और हमारे छोटे छोटे ख़्वाबों को सूली पे चढ़ा दिया
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क्यों समझते हो
गुनहगार
हमें उस गुनाह का,
जिसमें धकेला था
तुमने ही.
हमारा तो
एक साधारण सपना था
छोटा सा घर,
छोटा सा परिवार
और दो वक्त की रोटी.
लेकिन कहाँ सच होते हैं
छोटे लोगों के
छोटे सपने,
जब सामने हों
बूढ़े बीमार पिता
और भूके भाई बहन अपने.
मैंने तो चाही थी
सिर्फ़ मेहनत की दो रोटी,
लेकिन तुमको नज़र आयी
सिर्फ़ मेरी बोटी.
तुम्हारे बनाए दलदल में
मैं फंसती गयी,
बूढ़े बाप को दवा
भाई बहन को रोटी मिल गयी,
पर मेरी आत्मा उसी दिन मर गयी.
तुम्ही ने तो बताये थे
गुर व्यापार के
कि बिना पूंजी के
व्यापार नहीं होता,
और लगवा दी व्यापार में पूंज़ी
न केवल मेरे शरीर की
बल्कि आत्मा
और सम्पूर्ण अस्तित्व की.
निरीहों का शोषण कर,
छीन कर निवाला
उनके मुख से,
कालाबाजारी और रिश्वत
के व्यापारी
जीते हैं इज्ज़त से.
लेकिन मैं
फंसने पर भी तुम्हारे बनाए दलदल में
नहीं देती धोका किसी को
छीनती नहीं हक किसी गरीब का,
करती हूँ व्यापार,
ईमानदारी से,
अपने शरीर का.
अँधेरे कमरे में अप्सरा दिखती तुमको
रोशनी में मगर बदनुमा दाग,
कैसे भूल सकती मैं
लगायी थी तुमने
जो मेरे स्वप्नों में आग.
लेकिन तुम केवल तुम नहीं,
'तुम' में सामिल है
तुम्हारा पूरा समाज.
मुझे हिक़ारत से देखकर
डालना चाहते हो पर्दा
अपने गुनाहों पर,
लेकिन कभी सोचा है
कितना दर्द सहा है
मैंने हर दिन
अपने शरीर, आत्मा और सपनों को
सलीब पर लटके देख कर.
गुनहगार
हमें उस गुनाह का,
जिसमें धकेला था
तुमने ही.
हमारा तो
एक साधारण सपना था
छोटा सा घर,
छोटा सा परिवार
और दो वक्त की रोटी.
लेकिन कहाँ सच होते हैं
छोटे लोगों के
छोटे सपने,
जब सामने हों
बूढ़े बीमार पिता
और भूके भाई बहन अपने.
मैंने तो चाही थी
सिर्फ़ मेहनत की दो रोटी,
लेकिन तुमको नज़र आयी
सिर्फ़ मेरी बोटी.
तुम्हारे बनाए दलदल में
मैं फंसती गयी,
बूढ़े बाप को दवा
भाई बहन को रोटी मिल गयी,
पर मेरी आत्मा उसी दिन मर गयी.
तुम्ही ने तो बताये थे
गुर व्यापार के
कि बिना पूंजी के
व्यापार नहीं होता,
और लगवा दी व्यापार में पूंज़ी
न केवल मेरे शरीर की
बल्कि आत्मा
और सम्पूर्ण अस्तित्व की.
निरीहों का शोषण कर,
छीन कर निवाला
उनके मुख से,
कालाबाजारी और रिश्वत
के व्यापारी
जीते हैं इज्ज़त से.
लेकिन मैं
फंसने पर भी तुम्हारे बनाए दलदल में
नहीं देती धोका किसी को
छीनती नहीं हक किसी गरीब का,
करती हूँ व्यापार,
ईमानदारी से,
अपने शरीर का.
अँधेरे कमरे में अप्सरा दिखती तुमको
रोशनी में मगर बदनुमा दाग,
कैसे भूल सकती मैं
लगायी थी तुमने
जो मेरे स्वप्नों में आग.
लेकिन तुम केवल तुम नहीं,
'तुम' में सामिल है
तुम्हारा पूरा समाज.
मुझे हिक़ारत से देखकर
डालना चाहते हो पर्दा
अपने गुनाहों पर,
लेकिन कभी सोचा है
कितना दर्द सहा है
मैंने हर दिन
अपने शरीर, आत्मा और सपनों को
सलीब पर लटके देख कर.
कैलाश चंद्र शर्मा
ब्लॉग लिंक :http://sharmakailashc.blogspot
लगवा दी व्यापार में पूंज़ी
ReplyDeleteन केवल मेरे शरीर की
बल्कि आत्मा
और सम्पूर्ण अस्तित्व की.
बेहतरीन शब्द रचना ।
हकीकत से सामना ।
ReplyDeleteजिस्म के व्यापर के बारे में कहा जाता है कि यह दुनिया का सबसे पुराना व्यापर है .... कितनी दुखद बात है कि नारी देह का सौदा करना पुरुष तबसे सीख चूका था जबसे पढ़ना लिखना भी नहीं आता था ... कहीं तो मानव समाज में कुछ मूलभूत समस्या है ... बहुत सुन्दर रचना ! आपने एक अनछुई पहलु को छूने का साहस किया है ... कुछ लोगों को यह पढ़ना शायद अच्छा न लगे ... पर हमारे समाज का गन्दा सत्य यही है ...
ReplyDeleteलेकिन कभी सोचा है
ReplyDeleteकितना दर्द सहा है
मैंने हर दिन
अपने शरीर, आत्मा और सपनों को
सलीब पर लटके देख कर.
समाज को आईना दिखाती एक कटु सच्चाई को आपने जिस तरह प्रस्तुत किया है काबिल-ए-तारीफ़ है…………शायद ये दर्द कोई नही समझ पाता है चाहे फिर वो कोई भी हो हम सब सिर्फ़ लिख सकते हैं इस पर या बात कर सकते है मगर स्वीकार नही कर पाते इस हकीकत को।
बहुत ही बेहतरीन लिखा है,
ReplyDeleteपूरे मन के भावों को एक कविता में पिरो दिया, कमाल है
समाज की सच्चाई है ये तो..
ReplyDeleteमैंने भी कुछ लिखा था अभी इसी पे..
ब्लॉग पे "आत्महत्या" पढ़िएगा..
लोग कहते हैं की नकारात्मक मत लिखो.. पर कभी-कभी मन में वही भाव रहते हैं.. रुकते नहीं हैं..
फिर कुछ हल्का-फुल्का ही लिखा.. "जियो जी" भी पढ़िएगा..
आभार
मन को भीतर तक कचोटते हैं ये सवाल ...
ReplyDeleteकौन हैं इनके सपनों के सौदागर ...
ये तुम कोई सिर्फ एक नहीं ...पूरा समाज
मार्मिक रचना !
गहन संवेदनाएं समेटे, जीवन की कटु सच्चाईयों से रूबरू कराती, मर्मस्पर्शी सुंदर रचना. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
कैलाश जी की ये रचना पहले भी पढी है...
ReplyDeleteआज यहाँ पढ़कर भी अच्छा लगा...
वाकई ये दूसरा पहलू है...
आपकी पन्तियाँ तो किसी भी रचना का सर होती हैं बड़ी माँ...
bahut hi gahari baat liye huye hai rachna...
ReplyDeletebahut sundar...
यूँ हीं तुमने हमें गुनहगार बना दिया
ReplyDeleteऔर हमारे छोटे छोटे ख़्वाबों को सूली पे चढ़ा दिया
bahut sunder pangtiyan hain.kavita to hai hi achchi.