
हमारी सोच - हमारा आसमान
हमारे शब्द - कभी चाँद , कभी सितारे
कभी अमावस्या ...
मारते हैं हाथ पाँव
पूरे आसमान में
धुंए सा बादल छा जाता है
उतर आता है नीचे
पैरों से लिपट जाता है
कहता है मासूमियत से
सूरज भी निकलता है !
विश्व दीपक का जन्म बिहार के सोनपुर में २२ अक्टुबर १९८४ को हुआ था। सोनपुर हरिहरक्षेत्र के नाम से विख्यात है, जहाँ हरि और हर एक साथ एक हीं मूर्त्ति में विद्यमान है और जहाँ एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला लगता है। पूरा क्षेत्र मंदिरों से भरा हुआ है। इसलिए ये बचपन से हीं धार्मिक माहौल में रहे, लेकिन कभी भी पूर्णतया धार्मिक न हो सके। पूजा-पाठ के श्लोकों और दोहों को कविता की तरह हीं मानते रहे। पर इनके परिवार में कविता, कहानियों का किसी का भी शौक न था। आश्चर्य की बात है कि जब ये आठवीं में थे, तब से पता नहीं कैसे इन्हें कविता लिखने की आदत लग गई । फिर तो चूहा, बिल्ली, चप्पल, छाता किसी भी विषय पर लिखने लगे। इन्होंने अपनी कविताओं और अपनी कला को बारहवीं कक्षा तक गोपनीय ही रखा । तत्पश्चात मित्रों के सहयोग और प्रेम के कारण अपने क्षेत्र में ये कवि के रूप में जाने गये । बारहवीं के बाद इनका नामांकन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर के संगणक विज्ञान एवं अभियांत्रिकी विभाग में हो गया । कुछ दिनों तक इनकी लेखनी मौन रही,परंतु अंतरजाल पर कुछ सुधि पाठकगण और कुछ प्रेरणास्रोत मित्रों को पाकर वह फिर चल पड़ी । ये अभी भी क्रियाशील है। इनकी सबसे बड़ी खामी यह रही है कि इन्होंने अभी तक अपनी कविताओं को प्रकाशित होने के लिये कहीं भी प्रेषित नहीं किया।
कविताएँ:
साँसें बारीक काटकर
भर लें आ
सौ सीसियों में..
"ऊँची ऊँचाई" पर जब
हाँफने लगें रिश्ते
तो
उड़ेलना होगा
फटे फेफड़ों में
इन्हीं सीसियों को
होमियोपैथी की खुराक
देर-सबेर असर तो करेगी हीं!!
भर लें आ
सौ सीसियों में..
"ऊँची ऊँचाई" पर जब
हाँफने लगें रिश्ते
तो
उड़ेलना होगा
फटे फेफड़ों में
इन्हीं सीसियों को
होमियोपैथी की खुराक
देर-सबेर असर तो करेगी हीं!!
अमीरों की फेहरिश्त में,
मैंने सुना
आती हैं वो,
मैं सोचकर यह स्तब्ध हुआ,
इतना पैसा-
करती हैं क्या?
मैं मानता था - मजबूरी है,
कंगाली का आलम है,
सो , सर पर बालों का झूरमूट है,
पैरों में अनगढे चप्पल हैं,
कपडों का ऎसा सूखा है
कि
कतरनों को जोड़-जोड़
बड़ी मुश्किल स बदन छुपाती हैं वो।
अब जाना हूँ
स्टाईल है यह,
कई कारीगरों की मेहनत है,
बड़ी बारीकी से बिगाड़ा है।
कितनी मेहनत है-- महसूस करो,
इस शक्ति का आभास करो,
आभार लेप के भार का है,
जिसकॊ सह कर हीं रैन-दिवस
यूँ हर पल मुस्काती हैं वो।
अब अपनी हीं मति पर रोता हूँ,
इस तथ्य से क्यों बेगाना था,
वे देवी हैं-- आधुनिक देवी,
घर-घर में पूजी जाती हैं,
उनका निर्धारण,रहन-सहन
मुझ गंवार के बूते का हीं नहीं,
गाँव का एक अभागा हूँ,
खुद जैसे कितनों को मैंने
कितने घरों की इज्जत को
चिथड़ों में लिपटा पाया है,
पैसों की किल्लत को मैंने
नजदीक से है महसूस किया।
अब क्या जानूँ दुनिया उनकी
मेरी दुनिया जैसी हीं नहीं।
चलो यथार्थ को फिर से जीता हूँ,
मस्तिष्क में उनके हित उभरी,
जो भी कल्पित आकृति है-
शायद मेरी हीं गलती है,
इस कलियुग में अमीरों की
ऎसी हीं तो संस्कृति है।
चाहे मेरी नज़र में विकृत हो,
पर ऎसे हीं तो चह्क-चहक,
कुछ मटक-मटक ,यूँ दहक-दहक,
नई पीढी को राह दिखाती हैं वो,
अमीरी के इस आलम में ,
बड़ी मुश्किल से बदन छुपाती हैं वो।
मैंने सुना
आती हैं वो,
मैं सोचकर यह स्तब्ध हुआ,
इतना पैसा-
करती हैं क्या?
मैं मानता था - मजबूरी है,
कंगाली का आलम है,
सो , सर पर बालों का झूरमूट है,
पैरों में अनगढे चप्पल हैं,
कपडों का ऎसा सूखा है
कि
कतरनों को जोड़-जोड़
बड़ी मुश्किल स बदन छुपाती हैं वो।
अब जाना हूँ
स्टाईल है यह,
कई कारीगरों की मेहनत है,
बड़ी बारीकी से बिगाड़ा है।
कितनी मेहनत है-- महसूस करो,
इस शक्ति का आभास करो,
आभार लेप के भार का है,
जिसकॊ सह कर हीं रैन-दिवस
यूँ हर पल मुस्काती हैं वो।
अब अपनी हीं मति पर रोता हूँ,
इस तथ्य से क्यों बेगाना था,
वे देवी हैं-- आधुनिक देवी,
घर-घर में पूजी जाती हैं,
उनका निर्धारण,रहन-सहन
मुझ गंवार के बूते का हीं नहीं,
गाँव का एक अभागा हूँ,
खुद जैसे कितनों को मैंने
कितने घरों की इज्जत को
चिथड़ों में लिपटा पाया है,
पैसों की किल्लत को मैंने
नजदीक से है महसूस किया।
अब क्या जानूँ दुनिया उनकी
मेरी दुनिया जैसी हीं नहीं।
चलो यथार्थ को फिर से जीता हूँ,
मस्तिष्क में उनके हित उभरी,
जो भी कल्पित आकृति है-
शायद मेरी हीं गलती है,
इस कलियुग में अमीरों की
ऎसी हीं तो संस्कृति है।
चाहे मेरी नज़र में विकृत हो,
पर ऎसे हीं तो चह्क-चहक,
कुछ मटक-मटक ,यूँ दहक-दहक,
नई पीढी को राह दिखाती हैं वो,
अमीरी के इस आलम में ,
बड़ी मुश्किल से बदन छुपाती हैं वो।
"ऊँची ऊँचाई" पर जब
ReplyDeleteहाँफने लगें रिश्ते
तो
उड़ेलना होगा
फटे फेफड़ों में
इन्हीं सीसियों को
बहुत ही गहरे भाव लिये हुये सुन्दर अभिव्यक्ति ....रश्मि दी, आपका आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति को वटवृक्ष पर लाने के लिये ।
शानदार व्यंग्य के साथ दोनो रचनायें खूबसूरत
ReplyDeleteआधुनिक युग का बढ़िया व्यंग्य..कवि की कल्पना का जबाब नहीं कि क्या-क्या सोच लेता है और क्या मोड़ दे देता है किसी बिषय पर लिखने के लिये..इसका उदाहरण है ये कविता.
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteआधुनिका के लिये तो कवि बधाई के पात्र हैं
बेहतरीन प्रस्तुति...
ReplyDeleteदोनों ही रचनाएं बहुत अच्छी हैं...
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDelete.
ReplyDeleteरश्मि जी ,
आपका यह प्रयास बहुत अच्छा लगता है। नए-नए लेखक एवं लेखिकाओं को जानने एवं पढने का अवसर मिलता है। विश्व दीपक जी से परिचय कराने का आभार। इनकी कवितायें बहुत पसंद आयीं। एक अलग ही अंदाज़ में लिखी हुई हैं।
.
अमीरी के आलम में मुश्किल से बदन छुपाती हैं ...
ReplyDeleteव्यंग्य की तीक्ष्ण धार ...
सांसों और होमेओपैथी का मेल बेजोड़ है ..
आभार !
चाहे मेरी नज़र में विकृत हो,
ReplyDeleteपर ऎसे हीं तो चह्क-चहक,
कुछ मटक-मटक ,यूँ दहक-दहक,
नई पीढी को राह दिखाती हैं वो,
अमीरी के इस आलम में ,
बड़ी मुश्किल से बदन छुपाती हैं वो।
जबरदस्त कटाक्ष है आधुनिक वस्त्र विन्यास पर.
होम्योपेथी, साँसों और रिश्तों का सम्बन्ध यूनिक लगा :)
सबसे पहले तो रश्मि जी का धन्यवाद, जिन्होंने मेरी कविताओं को "वटवृक्ष" पर स्थान दिया।
ReplyDeleteसाथ हीं साथ सभी पाठकगण का शुक्रिया.. यूँ हीं मुझे (मुझे हीं क्यों... सभी रचनाकारों को :) ) प्रोत्साहित करते रहें..
धन्यवाद,
विश्व दीपक