बेरहमी से क़त्ल किसी और ने किया
पर मेरी हथेलियों में खून के दाग होते हैं
आत्मा कराहती है
उड़ने का मनोबल क्षीण होता है ...
रश्मि प्रभा
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जी हाँ! मैं कातिलहूँ ....
जब कभी
मेरे मन को
चिड़ियों के से पर मिले
जब कभी
कल्पनाओं के अनंत आकाश में
विचरते हुए
छू लेना चाहता हूँ
नभ की ऊचाईयों को
नकारकर –
ज़िन्दगी की कटीली सच्चाईयों को
सहसा,
मासूमों की अनवरत चीखें
ला पटकती हैं
फिर उसी कठोर धरातल पर
जहाँ
किसी अनुष्ठान की तरह
दुधमुहें का क़त्ल
अभी-अभी
किसी नराधम ने किया
इस पूरी प्रक्रिया से
गुज़रते हुए
महसूस करता हूँ मैं
ख़ुद के हाथों; अधरों पर
खून की अदृश्य सुर्खी
घबराकर भागता हूँ निरंतर
किसी एकांत स्थान पर,
पर हर स्थान पर
मुझसे पहले पहुँच जाती हैं
चीखों की फौजें
और दिमाग व मन को
जकड़ लेतीं है.
स्वयं से पलायन की
प्रसव पीड़ा के बीच
यक्ष प्रश्नों की बौछारें आती हैं –
यह जंगल संस्कृति किसकी है?
क्या तुम वाकई निर्दोष हो?
और फिर आज का युधिष्ठिर
स्वयं को मानव होने का
प्रमाण नहीं दे पाता है
निरुत्तरित रहकर चूक जाता है
आस्था; विश्वास; भ्रातृत्व व प्रेम को
पुनर्जीवित करने से
हाँ! हाँ! मैं दोषी हूँ
तमाम हत्याओं के लिए
ऐसे में जबकि
निर्दोषों; अबोधों की बलि चढ़ रही है
एकांत की तलाश
दोषी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है
तभी तो-
मेरे हाथ खून से रंगे हैं
हाँ! हाँ! मैं कातिल हूँ
जी हाँ! मैं कातिलहूँ
एम् वर्मा
http://verma8829.blogspot.com/
behtareen... abhivyakti
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबेहद शशक्त अभिव्यक्ति.प्रश्नाकर्ती रचना और स्वयं का दोष भी लेती बधाई वर्मा जी
ReplyDeleteऐसे में जबकि
ReplyDeleteनिर्दोषों; अबोधों की बलि चढ़ रही है
एकांत की तलाश
दोषी होने का सबसे बड़ा प्रमाण है
तभी तो-
मेरे हाथ खून से रंगे हैं...
यह स्वीकारोक्ति सिर्फ एक कवि की नहीं , इस दौर में हर संवेदनशील मौन रह जाने वाले इंसान की है ...हम सब कातिल है , सच्चाई के !
मार्मिक!
गहनता लिए बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...
ReplyDeleteव्यथित कर गयी रचना...
सादर.
सच्चाई की मार्मिक प्रस्तुति...
ReplyDeleteसम्वेदनाओं की तीखी चुभन!!
ReplyDeleteऔर फिर आज का युधिष्ठिर
स्वयं को मानव होने का
प्रमाण नहीं दे पाता है
निरुत्तरित रहकर चूक जाता है
आस्था; विश्वास; भ्रातृत्व व प्रेम को
पुनर्जीवित करने से
जहाँ घटता है निस्वार्थ प्रेम..जहाँ खिलखिलाते हैं बच्चे जहाँ खिलते हैं फूल उनमें मेरा भी हाथ है...मैं सर्जक हूँ प्रेमी हूँ...
ReplyDeleteमन के द्वंद का मंथन
ReplyDeletegahan abhivaykti........
ReplyDeleteबहुत उम्दा अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
गहन अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteएक कटु सत्य को उदघाटित करती सार्थक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteलाजवाब विचारों को प्रस्त्तुती...!
ReplyDeleteकातिल हूँ मैं इसीलिए तो वक़्त ने ये गुस्ताखी की आज मेरे साथ की मैं रोता रहा रात भर और ये कमबख्त गुजर भी गया बिना कुछ मशवरा किये...!
वटवृक्ष पर शामिल करने के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteसशक्त/सुगढ़ रचना...
ReplyDeleteसादर.
sach hai ki hum sabhi apne apne ekaant ki talaash mein hote hain, dusre se vimukh, sach se palayan karte hue. ye yaksh prashn hum sabhi ke liye.
ReplyDeleteयक्ष प्रश्नों की बौछारें आती हैं –
यह जंगल संस्कृति किसकी है?
क्या तुम वाकई निर्दोष हो?
saarthak rachna, shubhkaamnaayen.