ज़िन्दगी जीना है तो
बस ज़िन्दगी का ज़िक्र हो ....
रश्मि प्रभा
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तितलियों का ज़िक्र हो
प्यार का, अहसास का, ख़ामोशियों का ज़िक्र हो,
महफिलों में अब जरा तन्हाइयों का ज़िक्र हो।
मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
जो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।
रास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
क्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।
फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
मौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।
दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
धूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
-महेन्द्र वर्मा
http://shashwat-shilp.blogspot.com/
फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
ReplyDeleteमौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।
har line par wah.......behad khoobsurat likhe hain.
दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
ReplyDeleteधूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
बेहतरीन ...
वाह वाह!!!
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर...
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
लाजवाब...
सुप्रभात रश्मि जी...
ReplyDeleteसच्ची ..कितनी सुन्दर पंक्तियाँ कहीं आपने..
ज़िन्दगी जीना है तो
बस ज़िन्दगी का ज़िक्र हो ....
सादर.
फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
ReplyDeleteमौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।
sunder ..abhivyakti ..
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
ReplyDeleteचंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
बहुत सुंदर भाव..
दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
ReplyDeleteधूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
वाह ..बहुत खूब ...बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपका आभार ।
बेहतरीन प्रस्तुति ...
ReplyDeleteरास्ते तो और भी हैं, वक़्त भी, उम्मीद भी,
ReplyDeleteक्या जरूरत है भला, मायूसियों का ज़िक्र हो।
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
चंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।
ye aashaar behad pasand aaye...
गंध मिट्टी की नहीं ,महसूस होती सड़क पर,
ReplyDeleteचंद लम्हे गांव की, पगडंडियों का ज़िक्र हो।
बहुत सुन्दर
इस ग़ज़ल का एक एक शेर लाजवाब है। पढ़वाने का शुक्रिया..
ReplyDeleteफिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
ReplyDeleteमौसमों का गुलशनों का,तितलियों का ज़िक्र हो |
इस शहर की हर गली में, ढेर हैं बारूद के,
बुझा देना ग़र कहीं, चिन्गारियों का ज़िक्र हो।
क्या जरूरत है भला, मायूसियों का ,
खुबसूरत सपने और आशाओं का जिक्र हो.... !!
अपनी रचना को यहां देख कर खुशी हुई।
ReplyDeleteआभार आपका।
फिर बहारें आ रही हैं, चाहिए अब हर तरफ़,
ReplyDeleteमौसमों का गुलशनों का, तितलियों का ज़िक्र हो।
खूबसूरत अभिव्यक्ति !
दोष सूरज का नहीं है, ज़िक्र उसका न करो,
ReplyDeleteधूप से लड़ती हुई परछाइयों का ज़िक्र हो।
गंभीर विचारों से युक्त सीधे दिल को छू जाने वाली रचना है महेंद्र जी की. बहुत बधाई आप दोनों को.
मीर, ग़ालिब की ग़ज़ल या, जिगर के कुछ शे‘र हों,
ReplyDeleteजो कबीरा ने कही, उन साखियों का ज़िक्र हो।
waah!