जाने कितनी जिन्दगानियां
निरंतर पत्थरों संग
==========================================================
वह तोड़ता पत्थर
वह तोड़ता पत्थर
और ओढ़ता चादर
तन है ख़ाली मन है भारी
खाने को सिर्फ गालियां हैं
और ओढ़ता चादर
तन है ख़ाली मन है भारी
खाने को सिर्फ गालियां हैं
लेकर मजूरी शाम को
लौटता है जब ग्राम को
अपना सर्वस्व सौंप देता
अपनी धन्नो के हाथ में
पर कहीं कोई खोज बाकी रहती है हर हाल में
अपनी पूंजी , अपना पौरूष
और ले विश्वास को
फिर पहुंचता है कुरूक्षेत्र
अपने कर्म के लिए
ना है शिकवा
ना गिला है
तोड़ते पत्थर के संग
खुद भी टूटा जा रहा है
खुद को पाने की उम्मीदों से
वो दूर होता जा रहा है
.....
बहुत बढ़िया जमाल साहब.
ReplyDeletemamshparshi rachana, sunder lagi
ReplyDeletevedana ki mook vytha ,mukharit hoti huyi . sadhuvad
बहुत सटीक और सार्थक रचना ..
ReplyDeleteबहुत सार्थक रचना, बहुत बढ़िया जमाल साहब ..
ReplyDelete"तोड़ते पत्थर के संग
ReplyDeleteखुद भी टूटा जा रहा है"
वाह लाजवाब लिखा है..
इसकी पेशकश के लिए धन्यवाद..
jeevan kitna kathhor hai shabdon me aapne prakat kar diya hai .bahut sarthak rachna .aabhar .
ReplyDeleteमेहनतकशों की जिंदगी का सत्य !
ReplyDeleteमहानत कश इंसान का सुन्दर चित्रण
ReplyDeleteबधाई
आशा
डा0 अनवर ज़माल की यह कविता सर्वहारा वर्ग के दर्द को अभिव्यक्त करती है।
ReplyDeleteना है शिकवा
ReplyDeleteना गिला है
तोड़ते पत्थर के संग
खुद भी टूटा जा रहा है
खुद को पाने की उम्मीदों से
वो दूर होता जा रहा है
bahut hi sundar abhivyakti rashmi ji mahadivi ji ki tarj pr
dhanyvad
shuklabhramar5
bhut bhut sunder rachna...
ReplyDeleteतोड़ते पत्थर के संग
ReplyDeleteखुद भी टूटा जा रहा है
खुद को पाने की उम्मीदों से
वो दूर होता जा रहा है ।
गहन भावों को समेटे यह पंक्तियां ।
तोड़ते पत्थर के संग
ReplyDeleteखुद भी टूटा जा रहा है
खुद को पाने की उम्मीदों से
वो दूर होता जा रहा है...
मेहनतकश इंसान के दर्द को बखूबी उकेरा है...बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति
Very touching!
ReplyDeleteशानदार प्रस्तुति
ReplyDelete