जाने कितनी जिन्दगानियां
निरंतर पत्थरों संग
कुछ बनने की उम्मीदें लिए टूटती जाती हैं



रश्मि प्रभा




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वह तोड़ता पत्थर

वह तोड़ता पत्थर
और ओढ़ता चादर
तन है ख़ाली मन है भारी
खाने को सिर्फ गालियां हैं

लेकर मजूरी शाम को
लौटता है जब ग्राम को
अपना सर्वस्व सौंप देता
अपनी धन्नो के हाथ में
पर कहीं कोई खोज बाकी रहती है हर हाल में

अपनी पूंजी , अपना पौरूष
और ले विश्वास को
फिर पहुंचता है कुरूक्षेत्र
अपने कर्म के लिए

ना है शिकवा
ना गिला है
तोड़ते पत्थर के संग
खुद भी टूटा जा रहा है
खुद को पाने की उम्मीदों से
वो दूर होता जा रहा है
.....






डा. अनवर जमाल

15 comments:

  1. बहुत बढ़िया जमाल साहब.

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  2. mamshparshi rachana, sunder lagi
    vedana ki mook vytha ,mukharit hoti huyi . sadhuvad

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  3. बहुत सटीक और सार्थक रचना ..

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  4. बहुत सार्थक रचना, बहुत बढ़िया जमाल साहब ..

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  5. "तोड़ते पत्थर के संग
    खुद भी टूटा जा रहा है"
    वाह लाजवाब लिखा है..
    इसकी पेशकश के लिए धन्यवाद..

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  6. jeevan kitna kathhor hai shabdon me aapne prakat kar diya hai .bahut sarthak rachna .aabhar .

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  7. मेहनतकशों की जिंदगी का सत्य !

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  8. महानत कश इंसान का सुन्दर चित्रण
    बधाई
    आशा

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  9. डा0 अनवर ज़माल की यह कविता सर्वहारा वर्ग के दर्द को अभिव्यक्त करती है।

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  10. ना है शिकवा
    ना गिला है
    तोड़ते पत्थर के संग
    खुद भी टूटा जा रहा है
    खुद को पाने की उम्मीदों से
    वो दूर होता जा रहा है
    bahut hi sundar abhivyakti rashmi ji mahadivi ji ki tarj pr
    dhanyvad
    shuklabhramar5

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  11. तोड़ते पत्थर के संग
    खुद भी टूटा जा रहा है
    खुद को पाने की उम्मीदों से
    वो दूर होता जा रहा है ।


    गहन भावों को समेटे यह पंक्तियां ।

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  12. तोड़ते पत्थर के संग
    खुद भी टूटा जा रहा है
    खुद को पाने की उम्मीदों से
    वो दूर होता जा रहा है...

    मेहनतकश इंसान के दर्द को बखूबी उकेरा है...बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति

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  13. शानदार प्रस्तुति

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