खोल दिए हैं मैंने सब दरवाज़े
रश्मि प्रभा
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जाना चाहते हो तो जाओ
सांकल चढ़ा तुम्हें रोकूँ
और ...... जाना चाहते हो न
जाओ ....
रश्मि प्रभा
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तुम.....
जैसे कुछ पन्ने उड़ कर
कभी वापस आते नहीं,
तुम भी किस्तों में
उड़ जाते तो अच्छा रहता.
तुम इतने गहरे व तीखे
हो चले हो कि
मन की गिरहें भी काट लूँ, तो भी
तुम्हारा जाना अब संभव नहीं लगता.
गीली मिटटी –सा मेरा मन
ढले भी तो सिर्फ तेरे सांचे में;
मैं सूख कर भी ढूँढूं तुम्हें,
बनते दरारों के रेखाजाल में.
कोई पीपल - सा बीज
मन में बो गए हो तुम;
यादें आकर सींचती रही,
धीरे-धीरे तुम बढ़ने लगे हो मुझमें.
मैं तंग आ गई हूँ अब तुमसे
तुम चले जाओ दूर मुझसे;
इक घुटन – सी निकलती आह
कि क्यूँ तुम आए मेरे पास?
मत आओ मुझे बहलाने,
जब होऊं तुम्हें लेकर मैं उदास;
तुम पलट के फिर मुस्काते हो
मानो मेरे हर सवालों का तुम जवाब हो ...
मेरा परिचय : मेरा नाम बन्दना महतो है. मैं मूलत:झारखण्ड की रहनेवाली हूँ. अब तक मैंने सिविल इंजीनियरिंग में बैचेलर व मास्टर की डिग्री पूरी की है और अभी आई.आई.टी. खडगपुर से पी.एच.डी. कर रही हूँ. लेखन की ओर रुझान बचपन से ही था, शायद सातवीं कक्षा से लिखना शुरू किया था. हिंदी ब्लॉग जगत से परिचय २००७ में ही हुआ. जीवन के अहसासों को शब्दों में बंद कर हमेशा के लिए संजो लेने की कोशिश ही है शायद, जिससे मुझे लिखते रहने की प्रेरणा मिलती है.....!
बहुत सुन्दर रचना ...और परिपक्व भी !
ReplyDeleteकोई पीपल - सा बीज
ReplyDeleteमन में बो गए हो तुम;
बहुत सुन्दर रचना
pooree post bahut achchi lagi.....
ReplyDeleteमत आओ मुझे बहलाने,
ReplyDeleteजब होऊं तुम्हें लेकर मैं उदास;
तुम पलट के फिर मुस्काते हो
मानो मेरे हर सवालों का तुम जवाब हो ...
बहुत सुंदर कविता, मन के भावों का बेबांकी से निरूपण हुआ है रचना में. वंदना ढेर सी शुभकामनायें.
मन को छूती रचना बधाई |
ReplyDeleteआशा
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता शुभकामनायें
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ।
ReplyDeleteगीली मिटटी –सा मेरा मन
ReplyDeleteढले भी तो सिर्फ तेरे सांचे में;
मैं सूख कर भी ढूँढूं तुम्हें,
बनते दरारों के रेखाजाल में.
kya baat keh di aapne,
bahut hi sundar vichar!
and prastuti
mai aap dono ki fan hu...aur dono ko saath pana jaise, cherry on the cake... :)
ReplyDeletelines are superb...