कुछ भी पहले सा नहीं रहा
अब तो इंतज़ार को भी नींद आने लगी


रश्मि प्रभा



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ज़िन्दगी का बहीखाता !

सुबहें अब पहले सी नहीं होतीं
कोई बाहों में भर के अब नहीं उठाता
सूरज बहुत देर से निकलता है
दिन के दूसरे या तीसरे पहर

नींद भी देर से खुलती है
फिर भी न जाने क्यूँ
एक अजीब सी सुस्ती तारी रहती है
सारा दिन

वो शामें अब नहीं आतीं
के जिनके इंतज़ार में
दोपहरें उड़ती फिरतीं थीं
लम्हें पलकें बिछाते थे

अफ़सुर्दा आसमां से अब
पहले सी चाँदनी नहीं बरसती
चाँद एक कोने में उदास पड़ा रहता है
तारे उसे नज़र भर देखने को तरस जाते हैं

कोई जुम्बिश नहीं होती अब
ख़्यालों में
ना कोई ख़्वाब ही करवट लेता है
नींद की चादर तले

ये ग्रहों ने कैसी चाल बदली है
कि दिन-रात का सारा
हिसाब बिगड़ गया
कुछ भी अपनी जगह अब नहीं रहा

एक बार आओ मिल के
ज़िन्दगी का बहीखाता जांच लें
कि कुछ किश्तें ज़िन्दगी की ग़ायब हैं
या शायद खाते में चढ़ाना भूल गये हम...

-- ऋचा

14 comments:

  1. वाह …………गज़ब का लिखा है……………सच मे ज़िन्दगी का बहीखाता है।

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  2. कुछ भी पहले सा नहीं रहा
    अब तो इंतज़ार को भी नींद आने लगी
    uspar zindgi ka bahikhata.....jaise sone men suhaga...

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  3. बहुत सुन्दर और सच्चा लिखा है.

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  4. एक बार आओ मिल के
    ज़िन्दगी का बहीखाता जांच लें
    कि कुछ किश्तें ज़िन्दगी की ग़ायब हैं
    या शायद खाते में चढ़ाना भूल गये हम...

    बहुत खूबसूरत रचना ...इस कविता को मैंने चर्चा मंच पर भी लिया था ...

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  5. कि कुछ किश्तें ज़िन्दगी की ग़ायब हैं
    या शायद खाते में चढ़ाना भूल गये हम...


    वाह क्या बात है ... बहुत सुन्दर !

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  6. ज़िन्दगी का सच्चा बहीखाता बहुत खूबसूरती से पिरोया है ....

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  7. सोतने को विवश करती हुई बहुत सशक्त रचना!

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  8. jindgi ke bahi khate ka sunder chitran

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  9. jindagi ka sach.......sach mei aaj kuch bhi pahle jaisa nahi hai
    1 sachi abhivyakti....

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  10. "कुछ भी पहले सा नहीं है "
    बहुत सही लिखा है |अच्छी पोस्ट |बधाई
    आशा

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  11. kya kahe?jaise zindgi ka such samne rakh diya hai apne...

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  12. अजकल तो शायद वही खाता रखना ही लोग भूल गये हैं पूरी ज़िन्दगी बही खाते के बिना ही चली जा रही है। सुन्दर भाव। आभार।

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  13. एक बार आओ मिल के
    ज़िन्दगी का बहीखाता जांच लें
    कि कुछ किश्तें ज़िन्दगी की ग़ायब हैं
    या शायद खाते में चढ़ाना भूल गये हम...

    वाह ...बहुत खूब है यही बही खाता ...बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  14. "एक बार आओ मिल के
    ज़िन्दगी का बहीखाता जांच लें
    कि कुछ किश्तें ज़िन्दगी की ग़ायब हैं
    या शायद खाते में चढ़ाना भूल गये हम..."
    मानवीय परिवेश में बदलाव का बेहतरीन नमूना है आपकी रचना.बहुत कुछ ऐसा है जिसे वर्तमान जीवनमूल्यों में जोड़ना भूल गए हैं हम.

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