चल मधुशाला फिर साकी
एक जाम बना दे फिर साकी
होश गंवाकर हाले में
बिगड़ी बात बना दे ओ साकी
रश्मि प्रभा
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ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!
ओ साथी! क्यूँ मधुशाला जाए,
ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!
तौल रहा है लिए तराजू, किन बातों में कितना दम है...
जा बैठा मधुशाला में वो, सोच रहा ये कितने गम हैं...
भूल गया था शायद वो यह, इस गम का कारण भी हम हैं...
अपने ही कर्मों के फल का
ये अभिशाप न टाला जाए!!
ओ साथी! क्यूँ मधुशाला जाए,
ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!
क्यूँ उसका दिवानापन है, भला किसी की वो अपनी है..
जग जाहिर सी यह बात रही कि वो तो बस एक ठगनी है...
होश लूट कर ले जायेगी, इतनी ही उसकी करनी है....
मदहोशी की राह दिखा कर
कब वो गुम हो बाला जाए!!
ओ साथी! क्यूँ मधुशाला जाए,
ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!
जाने कितने गम के मारे, इसकी धुन पर नाच रहे हैं
जैसे ही मदहोशी टूटी, फिर अपना गम बांच रहे हैं..
अब तक किसका गम हर पाई, क्यूँ न इसको जांच रहे हैं...
दर्देगम जो और बढ़ा दे
वो मर्ज ही न पाला जाए!!
ओ साथी! क्यूँ मधुशाला जाए,
ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!
फूलों की जो गंध चुरा ले, और भौरों सा झूम रहा हो..
गम से जिसका न (कु)कोई नाता, खुशियाँ देने घूम रहा हो..
देखी जो गैरों की खुशियाँ, अपनी किस्मत चूम रहा हो..
उसी प्याले में पैमाना
भर भर करके ढाला जाए!
ओ साथी! वो मधुशाला आए,
ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!
-समीर लाल ’समीर’
अदभुत ,गहन, दिल को छूती यथार्थ का अहसास दिलाती सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
ReplyDeleteरश्मि जी और समीर जी दोंनों को बहुत बहुत बधाई और दोनों से विन्रम आग्रह है कि आप मेरे ब्लॉग पर आयें.रामजन्म पर दूसरी पोस्ट जारी कर दी है.
समीरजी से शिकायत है कि उन्होंने रामजन्म-आध्यात्मिक चिंतन-१ पर अभी तक भी दर्शन नहीं दिए हैं.मुझसे इतनी विरक्ति क्यूँ?
दर्देगम जो और बढ़ा दे
ReplyDeleteवो मर्ज ही न पाला जाए!!
वाह ... बहुत खूब कहा है आपने बेहतरीन प्रस्तुति ।
एक बेहद उत्तम और गहन अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteजाने कितने गम के मारे, इसकी धुन पर नाच रहे हैं
ReplyDeleteजैसे ही मदहोशी टूटी, फिर अपना गम बांच रहे हैं..
अब तक किसका गम हर पाई, क्यूँ न इसको जांच रहे हैं...
दर्देगम जो और बढ़ा दे
वो मर्ज ही न पाला जाए!!
hamne to issi karan ye marj ko nahi pala..:)
what a superb poem!!
sunder abhivyakti ..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteGo Green Think Green
समीर जी की रचना हमेशा ही दिल को छू कर निकलती है। आभार उन्हें पढवाने के लिये।
ReplyDeleteजाने कितने गम के मारे, इसकी धुन पर नाच रहे हैं
ReplyDeleteजैसे ही मदहोशी टूटी, फिर अपना गम बांच रहे हैं..
अब तक किसका गम हर पाई, क्यूँ न इसको जांच रहे हैं...
वाह बहुत खूब....दिल की आवाज़ को शब्दों का रूप दे दिया आपने
भूल गया था शायद वो यह, इस गम का कारण भी हम हैं...
ReplyDeleteअपने ही कर्मों के फल का
ये अभिशाप न टाला जाए!!
bilkul sach !
badhiya prastuti !
bhut suchi hai madhusala... bhut khubsurat...
ReplyDeleteजिसने पी जीवन की हाला ..
ReplyDeleteउसने ही जी यह मधुशाला !
आपने मेरी पुकार सुनी और आप मेरे ब्लॉग पर आये इसके लिए बहुत बहुत आभार आपका.कृपा बनाये रखियेगा.
ReplyDeleteदर्देगम जो और बढ़ा दे
ReplyDeleteवो मर्ज ही न पाला जाए!!
ओ साथी! क्यूँ मधुशाला जाए,
ओ साकी! व्यर्थ न हाला जाए!!
कितना अच्छा हो आज यह बात सभी के समझ मे आये………।सुंदर रचना।
ओह! बहुत सुन्दर.... समीर जी की यह कविता बहुत ही अच्छी लगी.....
ReplyDeletesolid......... Boss..... !
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति ...आपको और समीर भाई को शुभकामनायें !
ReplyDeleteदर्देगम जो और बढ़ा दे
ReplyDeleteवो मर्ज ही न पाला जाए!!
sahi kaha aise marz paal kar gam badhta hai ilaaj to hota nahin, par madira ka nasha aisa hin hai ki pine wale ko bahana chahiye, chahe dil toote ya fir dil jude, madiraalay to jana hin hai. madira ke maadhyam se zindgi ki sachchai aapne bata dee. bahut achhi rachna, bahut badhai Sameer ji.
चल मधुशाला फिर साकी
ReplyDeleteएक जाम बना दे फिर साकी
होश गंवाकर हाले में
बिगड़ी बात बना दे ओ साकी
wahhhhhhhhhhhh
फूलों की जो गंध चुरा ले, और भौरों सा झूम रहा हो..
गम से जिसका न (कु)कोई नाता, खुशियाँ देने घूम रहा हो..
देखी जो गैरों की खुशियाँ, अपनी किस्मत चूम रहा हो..
bahu badhiyaaaa...
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