नामों की गुत्थियों में उलझा मन
और तुम
तुम खुद में एक पहचान हो
हर नाम से परे .............
रश्मि प्रभा
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कविता : धरा, आकाश और वायु
कभी,
सोचता हूँ कि
तुम्हें कुछ और नाम दूँ
शायद धरा
लेकिन तुम जितना सह लेती हो
अनकहे रिश्तों का दर्द /
रीते मन में सालती हो टीस /
तुम धरा तो नही हो सकती
सोचता हूँ,
तुम्हें पुकारू आकाश कभी
लेकिन देखता हूँ
तुम्हारी आँखों में
सितारों से कहीं ज्यादा आँसू हैं /
दामन में इतनी सिलवटें कि
दामिनी गुम हो जाये कहीं अपनी चमक खो कर
तुम आकाश तो नहीं हो सकती
जो इतराता है
अपने मुट्ठी भर सितारों पर
या चाँद के एक टुकड़े पर
सोचता हूँ,
तुम्हें वायु का नाम दूँ
तुम घुली रहती हो मेरे ख्यालों में
किसी भी आकार में ढली हुई
लेकिन तुम
अपने साथ केवल पराग ही नहीं ले जाती हो
हवा की तरह
और छॊड़ देती हो अपने हाल पर
तुम अपने संग लिये जाती हो
संस्कृति / संस्कारों की बेल
और पोषती हो उसे
तिल-तिल सूखते हुये
नहीं ,
तुम वायु भी नहीं हो सकती
मैं,
सोचता हूँ
किसी दिन शायद तुम्हें दे पाऊं
कोई नाम
एकदम जुदा सा
जो तुम्हें परिभाषित करता हो
जैसा मैं देखता हूँ
मैं,
तुम पर नहीं थोपना चाहता
कोई पहचान
चाहे फिर वो मेरे नाम की ही क्यों न हो
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कुछ अपने बारे में : एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म, जहाँ जरूरतें ज़ेब से बड़ी और समझदारी उम्र से बड़ी होती है। और उस पर चार भाई बहनों में सबसे बड़ा होने के नाते कुछ ज्यादा ही समझदारी का बोझ ढोते जवान हो जाना।
जिन्दगी को करीब से लगभग सभी रंगों में देखा, जहाँ अभावो ने सदा हौसला बढाया कि हासिल करने को और भी मुकाम हैं, सबक हर कदम पर याद रहा।
कविता मुझे लगातार उर्जा देती है और अपनी मुश्किलों से जूझने का हौंसला भी।
(1) " कवितायन " http://tiwarimukesh.blogspot.com
(2) " किताबों के बारास्ता " http://pustakaayan.blogspot.com
स्थानीय पत्र / पत्रिकाओं में प्रकाशन।
पुरूस्कार, सम्मान : (१) हिन्दी वेबसाईट "हिन्द-युग्म" द्वारा "यूनि-कवि" सम्मान॥
(२) काव्य प्रतियोगिता में प्रथम स्थान।
तुम खुद में एक पहचान हो
ReplyDeleteहर नाम से परे .............
wah...kitni adbhud soch hai.....kya kahun.....
जो तुम्हें परिभाषित करता हो
ReplyDeleteजैसा मैं देखता हूँ
मैं,
तुम पर नहीं थोपना चाहता
कोई पहचान
चाहे फिर वो मेरे नाम की ही क्यों न हो
bahut khoobsurti se likhe hain aap
man tak pahoonch gayee hai....
इतनी खूबियों के बाद नाम की दरकार ही कहाँ ?
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत रचना |
तुम अपने संग लिये जाती हो
ReplyDeleteसंस्कृति / संस्कारों की बेल
और पोषती हो उसे
तिल-तिल सूखते हुये
नहीं ,
तुम वायु भी नहीं हो सकती
...sundar khoobsurat bhavabhivykti ke liye badhai
नामों की गुत्थियों में उलझा मन
ReplyDeleteऔर तुम
तुम खुद में एक पहचान हो
हर नाम से परे .............
एकदम जुदा सा
जो तुम्हें परिभाषित करता हो
जैसा मैं देखता हूँ
aaj ke VATVRISH PAR shabd hi nahin hain tareef ke liye -
bahut sunder Rashmi ji aapke shabd bhi aur Mukesh ji ki kavita bhi ...
magical expression ...simply superb.
मैं,
तुम पर नहीं थोपना चाहता
कोई पहचान
चाहे फिर वो मेरे नाम की ही क्यों न हो
Behtareen Abhivyakti..
ReplyDeleteबेनामी निःस्वार्थ रिश्ते की बेहतरीन प्रस्तुति !
ReplyDeleteकभी,
ReplyDeleteसोचता हूँ कि
तुम्हें कुछ और नाम दूँ... bhut hi khubsurat panktiya...
पृथ्वी , आकाश और वायु से भी बढ़कर --स्त्री ही तो है जो मां भी है , बेटी भी , प्रेयसी भी और पत्नी भी ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना ।
कभी,
ReplyDeleteसोचता हूँ कि
तुम्हें कुछ और नाम दूँ
शायद धरा
लेकिन तुम जितना सह लेती हो
अनकहे रिश्तों का दर्द /
रीते मन में सालती हो टीस /
तुम धरा तो नही हो सकती
ye hi to aisa gun hai jo shayad ishwar ne purush se adhik mahila ko diya hai ,,,,,,bahut sundar !
pooree kavita hi badhiya hai lekin ye bhi sach hai ki use koi nam nahin de sakte ham, kyonki alag alag samay men wo alag alag roop aur mansik sthiti men hoti hai
bahut sundar !
मुकेश कुमार तिवारी जी की रचना बहुत अच्छी रही.
ReplyDeleteऔर
नामों की गुत्थियों में उलझा मन
और तुम
तुम खुद में एक पहचान हो
हर नाम से परे...
लाजवाब रचनाओं में से एक है.
More than Excellent and out standing.
ReplyDeleteI have no word for comments. It involve, all three degrees of evaluation in it - great, greater and greatest....
नाम तो स्वयं सीमित होते हैं , केवल झलक दिखाते हैं किसी की। और स्त्रीत्व एक असीम शक्ति -कैसे समाये एक नाम में । बहुत ही अच्छी रचना है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteबेहतरीन काव्य रचना के लिए बधाई स्वीकारे और उत्तरोत्तर श्रेष्ठ काव्य रचे यही शुभकामनाये
ReplyDeleteतुम खुद में एक पहचान हो
ReplyDeleteहर नाम से परे ......
बहुत खूब ...।
मैं,
ReplyDeleteसोचता हूँ
किसी दिन शायद तुम्हें दे पाऊं
कोई नाम
एकदम जुदा सा
जो तुम्हें परिभाषित करता हो
जैसा मैं देखता हूँ...
बेहतरीन रचना..नव संवत्सर की हार्दिक शुभकामनायें!
धन्यवाद!!!
ReplyDeleteरश्मिप्रभा जी, आपने एक नई पहचान दी और सभी सुधि पाठकों का जिन्होंने कविता धरा, आकाश और वायु को पसंद किया और अपनी प्रेरणादायी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
मैं,
ReplyDeleteतुम पर नहीं थोपना चाहता
कोई पहचान
चाहे फिर वो मेरे नाम की ही क्यों न हो
----------------------------------------------- Bahut sunder!