तुम तो अप्राप्य के पीछे
प्राप्य से अलग दौड़ लगा रहे हो
खुद को दोष ना देकर
दूसरों को कारण बता रहे हो
हर धागे से खुद को खुद ही उलझाकर
उसे तोड़ते जा रहे हो
...दिल कभी गूंगा नहीं होता
शोर से परे उसकी सुनो
मरने से पहले जी लो ...
रश्मि प्रभा
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उन दिनों
यह बात उन दिनों की है ,
जब हमारे आँगन में
खुशियाँ महकतीं थीं
नीम और सरसों के फूलों में ही
और ठण्डक देती थी
बबूल की छाँव भी ।
पाँव नही थकते थे
मीलों चलते हुए भी
भरी दुपहरी में ।
बिताते थे हम अँधेरी रातों को
बिना किसी शिकायत के
गीतों के दीप जलाकर
प्रतीक्षा करते हुए उजाले पाख की ।
और चाँदनी सचमुच उतर आती थी
हमारी आँखों में ,निर्बाध.....
और बुनती थी छप्पर के तिनकों में ही
रुपहले रेशमी सपने ।
ऊँची नहीं होतीं थी
माटी की दीवारें ,
झाँक सकते थे पडौस के आँगन में
पंजों के बल खडे होकर
देखने ,कि सब्जी क्या बन रही है ।
या कि किस बात पर आपस में ठन रही है ।
कहीं किसी दुराव की जरूरत नही थी ।
बिना दस्तक दिये ,बिना पूछे ही
आँगन में ,आकर बैठ जाता था
पूरा आसमान,
बेझिझक पाँव पसार ।
नदी की राह में नही थी कोई खाई या दीवार
जरा सी आहट पर झट् से खुल जाते थे द्वार
यह उन दिनों की बात है
जब हर बार कुछ नया पेश करने की सूरत नही थी
मन बहलाने किसी साधन की जरूरत नही थी
खाली नही था मन को कोई कोना
मुट्ठी में था खुशी का होना न होना ।
क्योंकि तब हमारे बीच शहर नही था ।
शहर --जो अपनी असभ्यता व पिछडेपन से उबरने
खुद हमने ही बसाया ।
अपने आसपास ।
अब ,हम सभ्य हैं
प्रगतिशील हैं
हमारे आसपास चमक-दमक है
सुविधाएं हैं और सोने--चाँदी की खनक है
एक भरा-पूरा शहर आ बसा है हमारे बीच..।
और हम ढूँढ रहे हैं , अपनी खोई हुई
एक ठहाके वाली हँसी
किसी भीड भरे बाजार में ।
गिरिजा कुलश्रेष्ठ
जीवन के पाँच दशक पार करने के बाद भी खुद को पहली कक्षा में पाती हूँ ।अनुभूतियों को आज तक सही अभिव्यक्ति न मिल पाने की व्यग्रता है । दिमाग की बजाय दिल से सोचने व करने की आदत के कारण प्रायः हाशिये पर ही रहती आई हूँ ।फिर भी अपनी सार्थकता की तलाश जारी है ।
तुम तो अप्राप्य के पीछे
ReplyDeleteप्राप्य से अलग दौड़ लगा रहे हो
खुद को दोष ना देकर
दूसरों को कारण बता रहे हो
हर धागे से खुद को खुद ही उलझाकर
उसे तोड़ते जा रहे हो
...दिल कभी गूंगा नहीं होता
शोर से परे उसकी सुनो
मरने से पहले जी लो ...
amulya vachan Rahmi ji ....
Girija ji -
दिल को छू गयी आपकी रचना ..बहुत सुंदर प्रस्तुति ......
आडम्बर का लिहाफ हमने ही डाला है अपने ऊपर .....उसे हम ही हटा सकते हैं .....!!!!
दिखावे की प्रवृति ने सारी संवेदनायें खत्म कर दी हैं।
ReplyDeleteबेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना है...बधाई.... दूसरी बात यह कि अनुभूतियों को सही अभिव्यक्ति न मिल पाने की व्यग्रता ही नयी और बेहतर रचनाओं की प्रेरक शक्ति होती है और संतुष्टि उसके अवसान की सूचक.
ReplyDelete---देवेंद्र गौतम
...दिल कभी गूंगा नहीं होता
ReplyDeletekitni bari sachchyee........
और हम ढूँढ रहे हैं , अपनी खोई हुई
ReplyDeleteएक ठहाके वाली हँसी
किसी भीड भरे बाजार में ।
bahut achcha likhi hain.....
इतने दिनों बाद आकर इतनी अच्छे एवं प्रभावशाली रचना पढ़कर लगा, कुछ नहीं बदला...
ReplyDeletebahut hi sundar rachna....
ReplyDeletebhut hi sunder pastuti....
ReplyDeleteगीतों के दीप जलाकर
ReplyDeleteप्रतीक्षा करते हुए उजाले पाख की ।
और चाँदनी सचमुच उतर आती थी
हमारी आँखों में ,निर्बाध.....
और बुनती थी छप्पर के तिनकों में ही
रुपहले रेशमी सपने ।
ऊँची नहीं होतीं थी
माटी की दीवारें ,
झाँक सकते थे पडौस के आँगन में
पंजों के बल खडे होकर
पूरी कविता ही सुंदर है शानदार प्रस्तुति के लिए बधाई |
प्रशंसनीय अभिव्यक्ति
ReplyDeletehttp://abhinavsrijan.blogspot.com/
sabhi sadhno ke bad bhi khushi hamari gayab ho gayi hai
ReplyDelete.दिल कभी गूंगा नहीं होता
ReplyDeleteशोर से परे उसकी सुनो
मरने से पहले जी लो ...
इन पंक्तियों ने तो नि:शब्द कर दिया
एक ठहाके वाली हँसी
किसी भीड भरे बाजार में ।
एक सच कहती ...यह पंक्तियां अनुपम बन पड़ी हैं
इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आपका आभार ।