साथ अपने जब ग़ज़ल की शाम होती है
ज़िन्दगी पलकें झुकाए साथ चलती है
रश्मि प्रभा
===============================================================
तुमने जिनको छू लिया.....
हम लकीरों से उलझकर जब कभी बेघर हुए।
चल के तपते पत्थरों पर, चांदनी के दर हुए।
उनकी आँखों से छलक आयीं दो बूंदें गाल पर,
ख़्वाब उनके भी लो अब, नमकिनियों से तर हुए।
यूँ तो साहिल पर पड़े थे, सदियों से पत्थर कई,
तुमने जिनको छू लिया वो टुकड़े संग-मरमर हुए।
बीते बरसों भी कहा था माँ ने की अब लौट आ,
ख़्वाब शहरों के मगर मेरी राह के विषधर हुए।
याद करते ही तुझे ग़ज़लें सी उभरीं आँख में,
कोरे कागज़ थे कभी, अब तितलियों के पर हुए।
आवाजाही बढ गयी लो चाँद की गलियों में फिर,
जो सितारों के ठीये थे, आशिकों के घर हुए।
* राकेश जाज्वल्य.
कविताओं के माध्यम से खुद को जानने - पहचानने की प्रक्रिया भी मुसलसल चलती ही रहती है........कुछ कहते-सुनते, सुनते-कहते कभी-कभी मन हो आता है कुछ गुनगुनाने का. दुनिया की आप-धापी में इसी बहाने अपने लिए भी थोडा वक्त निकल आता है. क्या कहा, कितना कहा, क्यों कहा, किसे कहा, साहित्य हुआ या लुगदी, खुद बदले या कि जमाना, इन सब बातों से परे खुद को अभिव्यक्त करने का सुख भी कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं........विचारों का व्यक्त किया जाना जरुरी है............और क्या......
wah!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गज़ल्।
ReplyDeleteवाह ! क्या बात है ! बहुत सुन्दर !
ReplyDeletewaha ....bahut khub
ReplyDeleteबीते बरसों भी कहा था माँ ने की अब लौट आ,
ख़्वाब शहरों के मगर मेरी राह के विषधर हुए।
khas kar ye wala tho bahut umdaa..
बेहद उम्दा गजल !
ReplyDeletebahut sundar gazal...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गज़ल.......
ReplyDeleteछू लिया...संगमरमर हुआ...
ReplyDeleteयूँ तो साहिल पर पड़े थे, सदियों से पत्थर कई,
ReplyDeleteतुमने जिनको छू लिया वो टुकड़े संग-मरमर हुए।
बहुत खूब
behad khoobsorat gazal...
ReplyDelete