प्यार कहाँ नहीं अपने हस्ताक्षर करता है...
ग्लास में , चाय से उठते धुंए में
हथेली में ......
हस्ताक्षर तो अपने भीतर का प्यार है
बस एक बहाना चाहिए ......
रश्मि प्रभा
पुरानी कमीज
कल रात
किवाड़ के पीछे लगी खूंटी पर टंगी
तेरी उस कमीज पर नजर पड़ी
जिसे तूने ना जाने कब
यह कह कर टांग दिया था
कि अब यह पुरानी हो गई है.
और तब से
कई सारी आ गईं थीं नई कमीजें
सुन्दर,कीमती, समयानुकूल
परन्तु अब भी जब हवा के झोंके
उस पुरानी कमीज से टकराकर
मेरी नासिका में समाते हैं
एक अनूठी खुशबु का एहसास होता है
शायद ये तेरे पुराने प्रेम की सुगंध है
जो किसी भी नई कमीज़ से नहीं आती
इसीलिए मैं जब तब
उसी की आस्तीनों को
अपनी ग्रीवा पर लपेट लेती हूँ
क्योंकि
कमीजें कितनी भी बदलो
प्रेम नहीं बदला जाता
- शिखा वार्ष्णेय http://shikhakriti.blogspot.
- London, United Kingdom
प्रेम की अनुभूति को शिद्दत से व्यक्त किया है ..बहुत सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteno doubt, the ultimate luv,
ReplyDeletecongrate Mrs.Shikha Ji
वाह ...बहुत खूब ।
ReplyDeleteइसकी घनी छाया अविस्मर्निये है और एक से एक रचनाकार
ReplyDeletebahut sundar abhivyakti !
ReplyDeleteआप सभी का आभार.
ReplyDeleteवटवृक्ष पर मेरी रचना को स्थान देना का शुक्रिया रश्मि जी!
dil ko chune wali abhi vyakti
ReplyDeleteक्योंकि
ReplyDeleteकमीजें कितनी भी बदलो
प्रेम नहीं बदला जाता
bahut sunder abhivyakti....
पुरानी कमीज के माध्यम से प्रेम का शाश्वत होना मुखर हुआ है . सुन्दत रचना .
ReplyDeletebhut hi sunder abhivaykti...
ReplyDeleteकमीजें कितनी भी बदलो
ReplyDeleteप्रेम नहीं बदला जाता
क्या बात है, वाह शिखा जी बहुत उम्दा.
हस्ताक्षर तो अपने भीतर का प्यार है
ReplyDeleteबस एक बहाना चाहिए ......
bas.....wakayee ek bahana chahiye.
बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeletewahhh bahut achche...
ReplyDeletesunder rachna .
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ReplyDeleteवाह ! शिखा जी. पुरानी कमीज के भीतर भी प्रेम को ढूंढ़ निकाला.बहुत आत्मीय लगी आपकी ये रचना.शायद यादों को संजोकर रखनेवालों की संवेदना यही बसती है.बेहतरीन.
ReplyDeleteशीखा जी को बधाई इतनी सुन्दर रचना के लिए ...
ReplyDeleteकुछ यादें कभी भी मिटती नहीं ...
शायद ये तेरे पुराने प्रेम की सुगंध है
ReplyDeleteजो किसी भी नई कमीज़ से नहीं आती
अहसास जिससे जुड़ जाता है उससे जुदा होने से मन डरता है.