मेरी प्रीत तो दुनिया जाने
रश्मि प्रभा
तेरी प्रीत को जानूं मैं
जहाँ न कोई राह मिले
तू साथ चले मेरे ..........
रश्मि प्रभा
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"मीरा का उलाहना"
त्याग कर सब सुख चैन
प्रतिक्षण ध्यान तुम्हारा ध्याया
मुस्कान-उल्लास सब पीछे छूटा
रंग तुम्हारा ऐसा छाया
तज कर लोक लाज को
प्रेम का मनका मैंने फेरा
मन में प्रीत तुम्हारी डोली
तुमरा नाम जपन ही ध्येय है मेरा
मैंने वैभव को ठोकर मारी
तुमरी मूरत गले लगाई
मेरी प्रीत से सृष्टि हारी
तो, मृत्यु के संग करी बिदाई
मैंने छोड़ दिया संसार
तुम से करा प्रेम अपार
पर कान्हा तुम कैसे प्रेमी
मुझ पर डाला वियोग का भार
देवकी का ह्रदय तोड़ा
यशोदा का भी आँगन छोड़ा
राधा संग ना प्रीत निभाई
गोपी भी तुमने बहुत रुलाई
गोकुल को तुम छोड़ आये
मथुरा पल-पल नीर बरसाए
दंड दिया किस कारन उनको
यही भूल की-
-की अंतर्मन से चाहा तुमको?
दोष तुम्हारा ही है कन्हाई
रूप क्यों सलोना लाये
क्यों बहरूपि प्रेम सिखाया
क्यों स्मृति अपनी पीछे छोड़ आये
ये सब तो मित्थ्या है
तुमने तो बस चाहा है स्वयं को
तुम क्या जानो प्रेम विरह सब
तुमने तो छला है जग को
पर,
तथ्य फिर तुमसे ही पाया
तुम में तो है भुवन समाया
स्वयं से प्रीत निभा कर तुमने
समस्त ब्रह्माण्ड को प्रेम सिखाया
तुम तो मेरे प्राण हों कान्हा
तुम को उलाहना मेरा अधिकार है
उलाहने में भी प्रीत सजी है
ये तो बिरहन का श्रींगार है
मृदुला हर्षवर्धन
http://abhivyakti-naaz.blogspot.com
http://mridula-naazneen.blogspot.com/
वाह प्रेम के इस उलाहने के लिये तो मोहन भी तरसते हैं।
ReplyDeleteतुम को उलाहना मेरा अधिकार है
ReplyDeleteउलाहने में भी प्रीत सजी है
ये तो बिरहन का श्रींगार है
उलाहना तो है ..पर बहुत मीठा उलाहना है ...
इस को पढ़ते -पढ़ते अंत में प्रेम की मिठास ही याद रही उलाहना भूल गए ..
बहुत सुंदर लिखा है ..बधाई आपको मृदुला जी ..
और आभार रश्मि जी वटवृक्ष पर लेने के लिए..
तुम को उलाहना मेरा अधिकार है
ReplyDeleteउलाहने में भी प्रीत सजी है
ये तो बिरहन का श्रींगार है
bahut achchi lagi.....
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete"तुम तो मेरे प्राण हों कान्हा
ReplyDeleteतुम को उलाहना मेरा अधिकार है
उलाहने में भी प्रीत सजी है
ये तो बिरहन का श्रींगार है"
मृदुला जी ,बहुत सुन्दर . बस गया जो मन-प्राण में वही तुम्हारा प्यार है,सही कहा आपने तभी तो उलाहना देने का अधिकार है.उलाहना सुनने को भी आज कहाँ मिलता है.सूर और बिहारी का संगम सी है आपकी रचना.
तज कर लोक लाज को
ReplyDeleteप्रेम का मनका मैंने फेरा
मन में प्रीत तुम्हारी डोली
तुमरा नाम जपन ही ध्येय है मेरा
waah...........
preet to maange bas tyaag.....
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (30-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
ये सब तो मित्थ्या है
ReplyDeleteतुमने तो बस चाहा है स्वयं को
तुम क्या जानो प्रेम विरह सब
तुमने तो छला है जग को
stabdh karti panktiyan....
haa, kaheen na kaheen bhagwaan krishna ne chhalaa tha....shaayad meera ko bhi aur shaayad radha ko bhi?????
lekin ise chhal kahaa jaana chahiye ya krishna ka tyaag?????
बहुत गहन है, विरह का उलहाना!! सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना ... सच्चा प्रेम और समर्पण की भावना ...
ReplyDeleteग़ज़ल में अब मज़ा है क्या ?
तुम तो मेरे प्राण हों कान्हा
ReplyDeleteतुम को उलाहना मेरा अधिकार है
उलाहने में भी प्रीत सजी है
ये तो बिरहन का श्रंगार है!
.....वाह विरह का जीवंत चित्रण वह भी मीरा के भावों से वाह!
bhut hi sunder abhivakti...
ReplyDeleteप्रेम रस से सराबोर रचना...
ReplyDeleteमीरा का उलाहना जायज़ लगता है...ये प्रेम का ही प्रतिरूप है...
ReplyDeleteमेरी प्रीत तो दुनिया जाने
ReplyDeleteतेरी प्रीत को जानूं मैं
जहाँ न कोई राह मिले
तू साथ चले मेरे ..........
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तुम तो मेरे प्राण हों कान्हा
तुम को उलाहना मेरा अधिकार है
उलाहने में भी प्रीत सजी है
ये तो बिरहन का श्रंगार है!
वाह ... बहुत खूब कहा है इन पंक्तियों में ..।
गोकुल को तुम छोड़ आये
ReplyDeleteमथुरा पल-पल नीर बरसाए
दंड दिया किस कारन उनको
यही भूल की-
-की अंतर्मन से चाहा तुमको?
वाह ! मृदुला जी
इस कविता का तो जवाब नहीं !
रश्मि जी आप का बहुत बहुत धन्यवाद, आपके माध्यम से हम नीरस लोग भी इन सुन्दर रचनाओ का आनन्द पा सके, मृदुला जी बहुत ही प्रेम भरा उलहाना है मुरलीधर के लिए.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्दों में प्रेम कि अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteहर प्यार का रूप नहीं एक सामान
मिले रुसवाई और विरह यहाँ एक साथ
जो ना दिल की लगी बन जाये
तो वो प्रेम कि प्रीत कैसे कहलाये
मीरा और राधा में है उस
प्रेम में विरह का समागम
कौन जाने वो कब कब पूर्ण
कहलाये .......(अंजु.....अनु))
too gud Mridula ji,keep writing
ReplyDeleteआदरणीया मृदुला हर्षवर्धन जी सुन्दर कहा आप ने विरहिणी को उलाहना का पूरा अधिकार है उसके प्रेम में जो जर जर कारी हो गयी सुख चैन वैभव गंवा प्रियतम को गिले शिकवे क्यों न सुनाये -सुन्दर अभिव्यकित -मुबारक हो
ReplyDeleteस्वयं से प्रीत निभा कर तुमने
समस्त ब्रह्माण्ड को प्रेम सिखाया
तुम तो मेरे प्राण हों कान्हा
तुम को उलाहना मेरा अधिकार है
उलाहने में भी प्रीत सजी है
ये तो बिरहन का श्रींगार है
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