चित भी तुम्हारी पट भी तुम्हारी
हर बाज़ी अपने हाथ कैसे कर लेते हो
माहौल को गमगीन तुम बनाते हो
नाराज़ भी तुम .......... कैसे ?
रश्मि प्रभा
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कैसे कर लेते हो?तुम में एक खूबी है................
पूछोगे नहीं,क्या?
या आश्चर्य से कहोगे नहीं.............कि केवल एक?!
एक बात पूछूँ ,तुमसे..........
कि
तुम यह कैसे कर पाते हो कि ..
जब तुमसे गलती हो जाती है
तब इतनी ढिठाई से .....
तर्क पे तर्क करते रहते हो
बिना शर्मसार हुए .
तुम तब तक यह सब करते हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
कि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ .
जबकि ,मुझसे कभी कोई भूल हो जाती है
तो , कई दिन तक मुझे
अपराध बोध सालता रहता है .
मैं,
अपनी-तुम्हारी गलतियों का
बोझ ढो-ढो कर............
थक गयी हूँ .
अपनी भूल की पीड़ा ,
तुम्हारी गलती का दंश ,
दोनों,अकेले झेलती हूँ .
कभी तुम्हारा फूला हुआ मुंह ,
कभी तुम्हारा रूखा व्यवहार ,
तो कभी तुम्हारा अबोला सहकर.
बताओ ना.....................
कैसे कर लेते हो तुम यह सब .
निधि टंडन
लिखने में प्रसव सी पीड़ा होती है ..........जब तक अंतस में विचारों के कोलाहल को शब्दों में बाँध कर उसमें जीवन का संचरण कर कागज़ पर नहीं उकेर देती चैन नहीं मिलता है. ......अपने विषय में लिखने की बात पर शब्द जैसे साथ छोड़ देते हैं.........जीवन की इस यात्रा के पैंतीस वसंत देख चुकी हूँ और रोज अपने में कुछ नया ढूंढ लेती हूँ......अभी तो मेरा खुद से भी कायदे से परिचय नहीं हो पाया है.हाँ,लिखने पढ़ने का शौक है .स्नातक स्टार पर जब तीन साहित्य चुने तब पता चला कि लखनऊ विश्वविद्यालय में तीन साहित्य नहीं मिलते हैं.......तब,संस्कृत,अंग्रजी चुने और हिंदी को उस समय मजबूरीवश छोड़ना पड़ा .संस्कृत में शोध करने के बाद कुछ वर्ष महाविद्यालय में पढ़ाया फिर छोड़ दिया,आजकल गृहणी हूँ और अपने इस रूप से पूर्णतया संतुष्ट हूँ .संस्कृत में ,भारतीय दर्शन में शोधोपरांत सोच में अंतर आया......विचार परिपक्व हुए.आज ,हिंदी में,अंग्रेजी में टूटी-फूटी उर्दू में ......अपने सुख के लिए लिखती हूँ..मैं चाहूंगी की मेरी रचनाएँ पढ़ कर अप लोग जो भी महसूस करें .....अच्छा या खराब ,मुझे अवगत कराएं.आपको अच्छा लगा यह जान कर मेरा उत्साहवर्धन होगौ और यदि आपको खराब लगेगा तो उस कमी को इंगित करके आप मेरा मार्गदर्शन करेंगे.
चित भी तुम्हारी पट भी तुम्हारी
ReplyDeleteहर बाज़ी अपने हाथ कैसे कर लेते हो
माहौल को गमगीन तुम बनाते हो
नाराज़ भी तुम .......... कैसे ?
.........................
जबकि ,मुझसे कभी कोई भूल हो जाती है
तो , कई दिन तक मुझे
अपराध बोध सालता रहता है .
मैं,
अपनी-तुम्हारी गलतियों का
बोझ ढो-ढो कर............
थक गयी हूँ .
भावमय करते शब्द हैं इस अभिव्यक्ति के ... इस बेहतरीन एवं सशक्त रचना के लिये आभार ।
bhut khbsarti se dil ke bhaavo ko abhivakti ki hai apne... jo bhaav hote to har kisi dil me hai per unhe shabd nhi mil pate hai... vo muskil kaam apne kar dikhaya hai...
ReplyDeleteतुम यह कैसे कर पाते हो कि ..
ReplyDeleteजब तुमसे गलती हो जाती है
तब इतनी ढिठाई से .....
तर्क पे तर्क करते रहते हो
बिना शर्मसार हुए .
तुम तब तक यह सब करते हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
कि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ .
सच्चाई कहती सुन्दर रचना ....
अनुभव जब शब्द बनते हैं तो रचना दिल को छुं जाती है ... बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteतुम यह कैसे कर पाते हो कि ..
ReplyDeleteजब तुमसे गलती हो जाती है
तब इतनी ढिठाई से .....
तर्क पे तर्क करते रहते हो
बिना शर्मसार हुए .
तुम तब तक यह सब करते हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
कि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ .
जबकि ,मुझसे कभी कोई भूल हो जाती है
तो , कई दिन तक मुझे
अपराध बोध सालता रहता है .
कितनी सच्ची कविता ....सच कुछ लोग नजाने कैसे कर लेते है ये सब.... गलती है तो आप दोषी नही है तो भी आप दोषी या यूँ कहे की आप ही दोषी है और कोई नही आप को जीना है इसी अपराधबोध में ........
भावमय शब्द.... बेहतरीन एवं सशक्त रचना !
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण सशक्त रचना...
ReplyDeleteनिधि जी, धन्यबाद. कितने दिलों की कहानी आपकी रचना ''कैसे कर लेते हो'' ने कह डाली...आपके भावों से पूर्णतया सहमत हूँ व उनकी कद्र करती हूँ...
ReplyDeleteसुन्दर भावपूर्ण रचना.
ReplyDeleteबहुत ही मासूम से सवाल .......प्रभावी अंदाज़ ...
ReplyDeleteयही हैरानी हमें भी होती है लोग ऐसा कैसे कर लेते हैं ...
ReplyDeleteभावपूर्ण शब्दों में पीड़ा छलक आयी ...!
जब एहसास शब्दों के पंख ले लेते हैं तो दिल भी उस संग उड़ने लगता है |
ReplyDeleteमसुमियता से पूछा गया एक सवाल |
बहुत भावपूर्ण रचना |
bhawpurn rachna......
ReplyDeleteम यह कैसे कर पाते हो कि ..
ReplyDeleteजब तुमसे गलती हो जाती है
तब इतनी ढिठाई से .....
तर्क पे तर्क करते रहते हो
बिना शर्मसार हुए .
तुम तब तक यह सब करते हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
कि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ .
जबकि ,मुझसे कभी कोई भूल हो जाती है
तो , कई दिन तक मुझे
अपराध बोध सालता रहता है .
मैं,
अपनी-तुम्हारी गलतियों का
बोझ ढो-ढो कर............
थक गयी हूँ .
waaaaah !
द्वंदों का इतना सूक्ष्म विश्लेषण तो कोई मनोविज्ञान का महारथी ही कर सकता है ... और फिर उसका इतना सुन्दर चित्रण केवल आप ही कर सकते हैं निधि जी ...वाकई ..एक कसक सी हुई कविता पढ़कर ..लगा की एक बार अपने तरफ भी देखूं कहीं ...मेरे आसपास भी तो ऐसा हा कुछ घटित नही हो रहा है
आपका पुनः आभार निधि जी!
और रश्मि दी.. वटवृक्ष का यह स्तर आप हमेशा बनाये रखियेगा ...आपको प्रणाम !
bahut khoob...
ReplyDeletebehtarin Rachna... !
ReplyDeletebahut acchi rachna..
ReplyDeleteनिधि जी ..मन की पीड़ा को शब्दों का रूप दिया है आपने
ReplyDeleteमेरे हिसाब से ये हर नारी के मन की पीड़ा है ....आपने शब्दों में लिख दिया
पर हम जैसी कुछ बोल भी नहीं सकती...बहुत खूब और सच लिखा है आपने
sach hai bina kisi ki peeda ko pahchane peeda dena kaise kar jate ho...sunder rachna...
ReplyDeleteमाहौल को गमगीन तुम बनाते हो
ReplyDeleteनाराज़ भी तुम .......... कैसे ?
wahhhhhh
अपनी-तुम्हारी गलतियों का
बोझ ढो-ढो कर............
थक गयी हूँ .
अपनी भूल की पीड़ा ,
तुम्हारी गलती का दंश ,
दोनों,अकेले झेलती हूँ
ye ekdam satya bat kahi nidhi ji aapne...
अपनी-तुम्हारी गलतियों का
ReplyDeleteबोझ ढो-ढो कर............
थक गयी हूँ .
अपनी भूल की पीड़ा ,
तुम्हारी गलती का दंश ,
दोनों,अकेले झेलती हूँ .
कभी तुम्हारा फूला हुआ मुंह ,
कभी तुम्हारा रूखा व्यवहार ,
तो कभी तुम्हारा अबोला सहकर.
एक सच्चाई का बड़ी ही सहजता और सरलता से चित्रण किया है आप ने ,,बड़ी ही सार्थक और एहसास दिलाने वाली रचना है अगर हम समझना चाहें तो ,,,,बधाई स्वीकार करें
रश्मि जी आप ने तो ४ लाइनों में सारी पीड़ा का अनुभव करा दिया ,,,आप को भी मुबारक हो
जब तक मुझे एहसास नहीं करा देते
ReplyDeleteकि
जो गलती तुमने करी
उसका कारण भी मैं ही हूँ .
उफ़........ ये दर्प ही तो झंझटों की जड़ है.................
बहुत उम्दा/ भावपूर्ण.
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